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भगवतीस्त्र क्तव्यं स्यात्-' शस्त्रपरिणामितानि, अग्निध्यामितानि, अग्निजोपितानि, अग्निसेवितानि, अग्निपरिणामितानि ' इति संग्राह्यम् ।। सू०२ ॥
लवणसमुद्रवक्तव्यता प्रस्तावःमूलम्-' लवणे णं भंते ! समुद्दे केवइयं चक्कवाल विक्खं भेणं पण्णत्ते? एवं णेयत्वं, जाव-लोगदिई, लोगाणुभावे, सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं जाव विहरइ ॥ सू० ३ ॥
॥ पंचमसए बीओ उद्देसो समत्तो ॥ ५-२॥ छाया-लवणः खलु भदन्त! समुद्रः कियान चक्रवालविष्कम्भेण प्रज्ञप्तः ? एवं ज्ञातव्यम् , यावत्-लोकस्थितिः, लोकानुभावः, तदेवं भदन्त ! इति भगवान् यावत् विहरति ॥ मू. ३॥ उभयरूप शस्त्रों का निमित्त पाकर अपनी पूर्वपर्याय से अतिक्रान्त हो जाते हैं (जाव अगणिसरीरा इ वत्तव्यं सिया) यावत् वे अग्निकाय के शरीर भी कहे जा सकते हैं। सू०२ ॥
सूत्रार्थ-(लवणेणं भंते ! समुद्दे केवइयं चकवाल विक्खंभेणं पण्णते ) हे भदन्त | लवणसमुद्र का चक्रवाल विष्कंभ कितना कहा गया है ? (एवं नेयव्वं जाव लोगट्टिई लोगाणुभावे सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं जाव विहरह) पूर्व में कहे गये प्रमाण के अनुसार यह कथन यावत् लोकस्थिति लोकानुभाव तक जानना चाहिये । हे भदन्त यह सब जैसा आपने कहा है वह ऐसा ही है, हे भदन्त ! वह ऐसा ही है । इस प्रकार कहकर भगवान गौतम यावत् अपने स्थान पर बैठ गये। શસ્ત્રો દ્વારા તેમની પૂર્વપર્યાયથી રહિત કરવામાં આવે છે. અને ઉપરોક્ત અન્ય छियासी द्वारा तेभन भी पर्यायमा पविरामन ४२वामा मा छे त्यारे "जाव अगणिसरीरा इ वत्तव्य सिया" मन मसिहायतां शरी२ ५९ ४ी शाय छे.
सपए) समुद्रनी पतयता " लवणेण भते ! समुद्दे" त्या
सार्थ-" लवणेण भते समुद्दे केवइय चकवाल विक्खंभेण पण्णत्ते ? " 3 RErd ! eqणुसभुद्रना या वि . (परिध) a यो छ?" एवं नेयव्वं जाव लोगदिई लोगाणुभावे, सेवं भते ! सेवं भंते ! ति भगवं जाव विहरइ" લોકસ્થિતિ, લોકાનુભાવ પર્યન્ત આગળ કહેવા પ્રમાણ અનુસાર આ કથન સમજવું હે ભદન્ત ! આ વિષયમાં આપે જે પ્રતિપાદન કર્યું તે પ્રમાણે ભૂત છે. હે ભદન્ત! આપની વાત સર્વથા સત્ય છે, આ પ્રમાણે કહીને મહાવીર પ્રભુને વંદના-નમસકાર કરીને ગૌતમ સ્વામી તેમની જગ્યાએ બેસી ગયા.