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प्रमेयचन्द्रिका टोका श. ६ उं. ५ . २ कृष्णराजिस्वरूपनिरूपणम्
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च्छन्ति, संवर्षन्ति ? इन्त, अस्ति । तत् खलु भदन्त ? किं देवः प्रकरोति, असुरः करोति, नागः प्रकरोति ? गौतम । देवः प्रकरोति, नो असुरः, नो नागः प्रकरोति । अस्ति खलु भदन्त ! कृष्णराजिषु वादरः स्तनितशब्दः, यथा उदारास्तथा,
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गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है- इन कृष्णराजियों में न ग्राम हैं, न निगम हैं, न मडंब हैं, न कर्बट हैं, न पत्तन हैं, न द्रोणमुख हैं, न आश्रम हैं और न सन्निवेश हैं । (अत्थि णं भंते! कण्हराईसु णं उराला बलाहया संसेयति, संमुच्छंति, संवासंति ) हे भदन्त ! कृष्णराजियों में क्या उदार - विशाल - मेघ संस्वेद को प्राप्त होते हैं ? परस्पर के संघटन से क्या वे संमूच्छित होते हैं ? वृष्टि करते हैं ? ( हंता अस्थि ) हाँ गौतम ! कृष्णराजियों में बड़े २ मेघ संस्वेद को प्राप्त होते हैं, संमूच्छित होते हैं और पृष्टि करते हैं । ( तं भंते! किं देवो पंकरेह असुरो पकरेह, नागोपकरेह ) हे भदन्त 1 कृष्णराजियों में, संस्वेदन संमूर्च्छन और संवर्षण क्या देव करता है ? या असुर करता है ? नाग करता है, ? ( गोयमा ) हे गौतम! ( देवो पकरेइ ) देव ही करता है ( णो असुरोपकरेह णो नागो पकरेइ ) असुर नहीं करता है और न नाग ही करता है । तात्पर्य कहने का यह है कि कृष्णराजियों में मेघों का संस्वेदन आदिकार्य देव करता है असुर नाग नहीं करते हैं क्यों कि असुर नाग का वहां गमन ही नहीं होता है ।
નથી ત્યાં ગામ પણ નથી, નિગમ પણ નથી, મડંખ પણ નથી, કટ પશુ નથી, પત્તન પશુ નથી, દ્રોણુમુખ પણ નથી,'આશ્રમ પણ નથી અને સન્નિ बेशं या नथी, ( अस्थि णं भंते ! कण्हराईसु ण उराला बलाहया ससेयंति, संमुच्छंति, संवासंति १) हे 'लहन्त ! शुष्णुरानिशोभां विशाल भेधेोनु' सस्पेन થાય છે ખરૂ? શું તેઓ ત્યાં પરસ્પરના સચેાગથી સ’સૂચ્છિત (એકત્રિત) થાય छे १ शु' तेथे! त्यां वरसे छे ? ( हंता, अस्थि ) डा, गौतम ! शनियमां વિશાળ મેઘાનું સંસ્વેદન થાય છે, તેઓ ત્યાં સમૂચ્છિત થાય છે અને વૃદ્ધિ बरसावे छे. ( तं भंते । किं देवो पकरेइ, असुरो पकरेइ, णागो पकरेइ १ ) હું ભઇન્ત ! કૃષ્ણરાજિઆમાં સર્વેનન, સમૂન અને વણુ કાણુ કરે છે? શું દેવ કરે છે ? શુ અસુરકુમાર કરે છે? શું નાગકુમાર કરે છે ?
( गोयमा 1 ) डे गौतम ! ( देवो पकरेह ) हेव रे छे, (जो असुरों पंकरेs, णो णागो पकरेइ ) असुरकुमार अश्ता' नथी भने नागकुमार प રતા નથી, કારણુ કે અસુરકુમાર અને નાગકુમારનું ત્યાં ગમન જ થતું નથી,