SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - मैयन्द्रिका टीका २०७० सू४ लक्षणसमुद्रपकव्यतानिरूपणम् १७ -जया गं ते !' यदा रूलु भदन्त ! 'लवणे समुद्दे ' लवणे समुद्रे 'दाहिणड्डे दिवसे भवई' दक्षिणार्धे दक्षिणभागे दिवसो भवति, 'तं चेव जाव' तदेव यावत् पूक्तिं सर्वमेव यावरकरणात संग्राह्यम, तथा च तदा लवणसमुद्रे उत्तरार्धेऽपि दिवसों भवति, यदा च उत्तरार्धे दिवसो भवति' इत्यन्तं बोध्यम् , तदनन्तरमाह -'तया ण' तदा खलु 'लणसमुद्दे' लवणसमुद्रे 'पुरस्थिमपच्चत्थिमेणं पौरस्त्यपश्चिमे खलु 'राई भवई' गत्रिभवति 'एएणं' एतेन उक्तस्वरूपेण दिग्दर्शनात्मकेन 'अभिलावेणं' अभिला पेन 'नेय,' ज्ञातव्यम्। जम्बूद्वीपप्रकरणवत् सर्वं स्वयमूहनीयम्। ___अथ गौतमो लक्षणसमुद्रेऽवसर्पिण्यादिविषयकं प्रश्नं करोति 'जया णं भंते । कोई विशेषता नहीं है। इसी बात को शास्त्रकार ने ( जया णं भंते लवणसमुद्दे ) इत्यादि पाठ द्वारा स्पष्ट किया है गौतम प्रभु से पूछ रहे हैं कि हे भदन्त ! जब लवणममुद्र में (दाहिणड्डे) दक्षिणदिग्भाग में (दिवसे) दिवस होता है, (तं चेव जाव) के अनुसार उस समय लवणसमुद्र में (उत्तरडेवि दिवसे) उत्तरदिग्भाग में भी दिवस (भवइ) होता है और जब उत्तरार्ध में भी दिवस होता है (तया णं) तब ( लवणसमुद्दे ) लवणसमुद्र में (पुरथिमपच्चत्थिमेण राई भवइ) पूर्व पश्चिम दिग्भाग में रात्रि होती हैं, (एएणं अभिलावेणं नेयवं) ऐसा कथन इस दिग्दर्शनात्मक अभिलाप से जानना चाहिये । अर्थात् जंबूद्वीप के प्रकरण की तरह सब अपने आप ममझ लेना चाहिये। ___अघ गौतम प्रभु से लवण म्मुद्र में अवसर्पिणी आदि काल होते हैं यो नहीं होते हैं ऐसा प्रश्न करते हैं- (जया णं भंते) हे भदन्त ! जब કહેવાશે, એટલી જ આલાપકેમાં વિશેષતા રહેલી છે. એજ વાતને સ્પષ્ટ કરવા भाटे सूत्रारे नायना प्रश्नोत्त२३५ मादाय भूयो छ-(जयाणं भंते लवणसमुद्दे) महन्त ! न्यारे पशुसमुद्रभा (दाहिणड्ढे ) इक्षिामा “दिवसे" हिस थाय छ, (तचेव जाव) त्यारे शं उत्तराभा पहिवस थायछे ? ने न्यारे उत्तराभा पहिस थाय छ, ( तयाण) त्यारे ( लवणसमुद्दे) समुद्रमा (पुरस्थिम-पच्चत्थिमेणं राई भवइ ?) पू भने पश्चिम भागभांशु रात्रि थाय छ १ ( एए णं अभिलावेणं नेयव ) मा प्रारना प्रश्नोत्तरे द्वारा Aary સમુદ્રના વિષયમાં સમસ્ત વર્ણન જંબુદ્વીપના વર્ણન પ્રમાણે જ કરવું જોઈએ. . હવે ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને પ્રશ્ન કરે છે કે લવણસમુદ્રમાં અવभक्सपिणी अन त्सपि डाय छ है नहीं- (जयाणं भंते 1 ) 3 लहrd ! न्यारे ( लवणसमुद्दे) पशुसभुद्रना (दाहिणडढे) दक्षिण हिमाni (पढमा ओसप्पिणी पडीवज्जइ ) मसविन प्रथा मा डाय, छ,
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy