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________________ मगरतोसुटे भावात् । 'सरीरअपज्जत्तीए, इंदिय-अपजत्तीए, आण-पाण-अपज्जतीए जीव एगिदियवज्जो तियभंगो' शरीरापर्याप्ती, इन्द्रियापर्याप्ती धानप्राणापर्याप्ती जीवैकेन्द्रियवर्जः जीवपदम् एकेन्द्रियपृथिव्याविपदानि च वर्जयित्वा अन्येषु पदेषु त्रिकमाः पूर्वोक्तास्त्रयो भङ्गाः, शरीरेन्द्रियानमाणापर्याप्तिकानां कालापेक्षया सप्रदेशानां सर्वदेव लाभात् , अप्रदेशानां च कदाचिद् एकादीनां लाभान् । जीवपदे. एकेन्द्रियपृथिव्यादिपदेप्चत्र तृतीयो भगः, किन्तु- नरय-देव-मणुएहि छब्नंगा' नायिक-देव-मनुजेषु पूर्वोक्ताः पङ्गलाः । 'भागा-मणपज्जतीए जीवाओ तियभंगो' भापा-मनोऽपर्याप्ती जीवादिया जीवादिपदेषु त्रिकभन्नः पूर्वोक्तास्त्रयो भङ्गाः वक्तव्याः, तथा च-जीवे, पञ्चेन्द्रियनिर्यक्षु च बहूनां भाषाहैं। (सरीरअपज्जत्तीए, इंदिय अपज्जत्तीर, आगाण अपज्जतीए जीव-एगिदियवज्जो ) जीवपद और एक्षेन्द्रियपदों को छोड़कर शरीर अपर्याप्ति में, इन्द्रिय अपर्याप्ति में, श्वासोच्छ्वास अपर्याप्ति में, अन्यपदों में पूर्वोक्त तीन भंग होते हैं। कारण कि शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास से अपर्याप्त अवस्थावाले जीव काल की अपेक्षा से समदेश सर्वदा मिलते हैं और अप्रदेश कदाचित् पकादि मिलता है। जीव पद में और एकेन्द्रियपृथिव्यादिक पदों में यहां एक तीसरा ही नंग है। किन्तु (नेरड्य-देव-मणुएहिं छन्भंगा) नरयिक जीवों में, देवों में और मनुष्यों में छह अंग होते हैं । ( माता-मण-अपात्तीए जीवाहओ तियभंगो) भपापर्याप्ति और मनः पर्याप्ति से अपर्यात हार में जीवादिक पदों में पूर्वोक्त तीन भंग होते हैं। तथा च-जीव और पंचेन्द्रिय तिथंचों में भापा और मन की अपर्याप्ति को प्रतिपन्न हुए अनेकजीवोंका ( सरीर अपज्जत्तीए, इ दिय अपज्जत्ताए, आणण अपज्जत्तीए, जोव एगिदियवज्जो ) ०१५४ भने गन्द्रिय हो जिवायना शरीर आपतिवाणा, ઈન્દ્રિય અપર્યામિવાળા અને શ્વાવાસ અપર્યાપ્તિવાળા બાકીના પદોમાં પૂર્વોક્ત ત્રણ ભંગ થાય છે. કારણ કે શરીર, ઈન્દ્રિય અને શ્વાસેચ્છવાસમાં અપર્યાપ્ત અવસ્થાવાળા જ કાળની અપેક્ષાએ સપ્રદેશ સદા મળી શકે છે અને અપ્રદેશ ક્યારેક એકાદ જીવ જ મળી શકે છે. જીવપદમાં અને એકેન્દ્રિય पहीमा मल त्रीने 101 थाय छे. ५२न्तु ( नेरइय, देव, मणुएहि छन्भंगा) નારકમાં, દેવામાં અને મનુષ્યમાં છ ભંગ થાય છે. (भासा-मण-अपजत्तीए जीवोइओ तियमंगो) भाषामन मर्यात द्वारमा જીવાદિક પદેમાં પૂર્વોક્ત ત્રણ ભંગ થાય છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે ભાષા
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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