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________________ १०१० भगवतीसत्रे जीवै केन्द्रियवर्णः जीवपदम् एकेन्द्रियपृथिव्यादिपदानि च वर्जयित्वा मनुष्यादिषु त्रिकभङ्गः, पूर्वोकत्रयोभङ्गा वक्तव्याः, जीवपदे, एकेन्द्रियपृथिव्यादिपदेषु तु बहूनाम् आहार - शरीरे - न्द्रिया - ऽनप्राणपर्याप्तीः प्रतिपन्नानां, बहूनामेव च आहारापर्याप्तिपरित्य गेन आहारादिपर्याप्तिभिः पर्याप्तिभावं गतिपद्यमानानां सद्भावात् हवः सप्रदेशाश्च बहवः अप्रदेशाच ' इति तृतीयो भङ्ग एव वक्तव्य इत्याशयः भासा - मणपज्जत्तीए जहा सन्नी ' भाषामनसोः पर्याप्तिः भाषामनःपर्याप्तिस्तस्याम् बहुश्रुताभिमतत्वादेकत्वं विवक्षितम् भाषा - मनः पर्याप्त्योरित्यर्थः पर्याप्तिमन्तो जीवाः यथासंज्ञिनः पूर्वं प्रतिपादितास्तथा समदेणत्वादिना वक्तव्याः, 6 " एकेन्द्रियपृथिव्यादिकपदों में छोड़कर मनुष्यादिकों में पूर्वोक्त तीन भंग होते हैं। जीवपद में एवं एकेन्द्रियपृथिव्यादिक पदों में तो अनेक जीवों का जो कि आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास इन पर्याप्तियों को पहिले से ही प्रतिपन्न किये हुए होते हैं सद्भाव रहता है, तथा आहारादि अपर्याप्त भाव के परित्याग से आहारादि पर्याप्तियों से जो पर्याशिभाव को प्रतिपद्यमान होते हैं ऐसे भी अनेक जीवों का सद्भाव रहता है - इस कारण 'बहवः सप्रदेशाश्च बहवः अप्रदेशाश्च " यहाँ ऐसा एक तीसरा ही भंग होता है। तथा बाकी के अन्य जीवों में तीन भंग होते हैं । ( भासामणपज्जन्तीए जहा सन्नी) जो पर्याप्त है वह भाषामनः पर्याप्ति है । भाषापर्याप्ति और सनः पर्याप्ति इस प्रकार की ये दो पर्याप्तियां अलग २ हैं - फिर भी जो यहां उन्हें एकरूप जैसा विवक्षित किया गया है उसका कारण बहु श्रुतजनों को 66 भाषा और सन की પૃથ્વીકાય આદિ પાંચ એકેન્દ્રિય પદાને છેાડીને બાકીના મનુષ્ય આફ્રિકામાં પૂર્વોક્ત ત્રણ ભંગ થાય છે છત્રપદ્યમાં અને એકેન્દ્રિય પૃથ્વીકાય આદિક પટ્ટામાં તે આહાર, શરીર, ઇન્દ્રિય અને શ્વાસેવાસ આ પતિને પહેલેથી જ પ્રાપ્ત કરી હાય એવાં અનેક જીવાને સદ્દભાવ રહે છે, તથા આહારાદિ અપર્યાપ્તક અવસ્થાને ત્યાગ કરીને અહારાદ્રિ પર્યાપ્તક અવસ્થામાં भावता होय मेत्रा भने भवानी पशु सहला रहे छे, ते अरले ( बहवः सप्रदेशाश्च बहवः अप्रदेशाख ) अहीं या भेड़ त्रीले लंग ४ थाय छे, अने माडीना लवोभां नये लौंग थाय छे. ( भासामण पज्जत्तीए जहा सन्नी ) भाषा અને મનની જે પર્યાપ્તિ છે તેને ભાષામન પર્યાસિ કહે છે. ભાષા પતિ અને મન પસિ,એ અને જુદી જુદી પર્યાપ્તિસ્મે છે, છતાં પણ અહીં તેમને એકરૂપ જેવી મતાવવામાં આવી છે, તેનું કારણ એ છે કે ઘણા વિદ્વાનેાએ
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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