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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श.३ उ. ६.१ मिथ्यादृष्टेरनगारस्य विकुर्वणानिरूपणम् ७२७ गतरूपाणि पश्यामि इत्यभिमन्यते सः । गौतमः अनगारस्यान्यथाभाव दर्शने कारणं पृच्छति - ' से केणट्टेणं भंते ! इत्यादि । हे भदन्त । तत् केना र्थेन केन कारणेन ' एवं ' बुध' एवम् उक्तरीत्या उच्यते यत- 'नो तहाभाव जो तथाभावं, 'जाणइ, पास' जानाति, पश्यति ? अपि तु 'अन्नदाभावः' अन्यथाभावं 'जाणइ, पास' जानाति, पश्यति इति । भगवानाह - 'गोयमा हे गौतम! 'सणं एवं भवइ' तस्य खलु अनगारस्य एवं वक्ष्यमाणमकार 'भवइ' भवति यत् - एवं खलु अहं 'रायगिहे नयरे' राजगृहे नगरे 'समोह' होकर वाणारसी नगरीकी विकुर्वणा की है अतः मैं इस समय राजगृह नगर में स्थित नहीं ह वाणारसी में स्थित हैं, फिर भी राजुगृहनगर के रूपों को देख रहा हूं और जान रहा हूँ ऐसा वह मानता - है ऐसी मान्यता ही उसका अन्यधाभाव है । इसी अन्यधाभावसे वह रूपोंको जानता देखता है। अब गौतम प्रभुसे यह पूछते इस तरह से उसके अन्यथाभाव से देखने में कारण क्या है ? केणणं भंते! एवं बुच्चइ नो तहाभाव जाणइ, पासइ, अन्नहाभा जाणइ पास' हे भदन्त ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं वह भावितात्मा मिथ्यादृष्टि अनगार तथा भावसे नहीं देखता जानते है किन्तु अन्यथाभाव से जानता और देखता है ? इसका उत्तर देते हुए प्रभु गौतम से कहते हैं कि 'गोयमा' हे गौतम ! 'तस्स णं एवं भव' उस भावितात्मा मिथ्यादृष्टि अनगार के मनमें ऐसा विचार बंध जाता है कि 'एवं खलु अहं रायगिहे नपरे समोहए' मैंने राजगृह રાજગૃહ નગરમાં બેઠાં બેઠાં વાણારસી નગરીની વિકણા કરી છે-તે શું હું આ સમયે રાંજગૃહ નગરમાં નથી પણ વાણુારસી નગરીમાં બેઠા છું, છતાં પણ રાજગૃહ નગરનાં રૂપાને દેખી રહ્યો છું, અને જાણી રહ્યો છું.' એવું તે માને છે. એવી માન્યતા તેના અન્યથાભાવ (અયથા ભાવ) છે. હવે તેનું કારણ ગૌતમ પૂછે છે— • प्रश्न - ' से केणटुणं भंते एवं बुच्चइ, नो तहाभावं जाणइ, पास, अन्नहाभावं जाणड़ पास' हे सहन्त ! आप शा रो मे हो छ। 'लावितात् મિથ્યાષ્ટિ અણગાર તે રૂપાને યથારૂપે જાણુતા, દેખતે નથી, પણ અયા ३ये लोहे छे ?' उत्तर – 'गोयमा !' डे गौतम ! 'तस्स णं एवं भवइ' ते लावितात्मा भिथ्या दृष्टि अणुशारना भनभां भेवो वियार अधा लय छे है ' एवं खलु अहं रायगिदे नयरे समोहए' 'में' गृह नगरमां श्रेठां श्रेठां वाशशुसी नगरीनी विश्व या उरी छे.
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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