________________
६७४
भगवतीसगे एवमेव अनगारोऽपि भावितात्मा एकतः पताका हस्ते कृत्य गतेन आत्मना ऊर्ध्व विहापः उत्पतेत ? हन्त, गौतम | उत्पतेत, अनगारः खलु भदन्त ! भावितात्मा कियनित प्रभुः एकतः पताका हस्ते कृत्य गतानि रूपाणि विकृतितुम् ? एवं चैव यावत्-ज्य/दु वा, विकुर्वति वा, विकृषिप्यति बा, पवम् गयाई विउन्चित्तए) हे भदन्त भावितात्मा अनगार ऐसे कितने रूपों को अपनी विक्रिया शक्तिसे निप्पन्न कर सकता है कि जिन्होंने अपने हाथों में तलवार और ढाल ले रग्बी है ? (से जहानामए जुवई जुधाणे हत्थे णं हत्थे गेण्हेज्जातं चेव जाब विउल्बिसु वा, विजबिति वा, विउव्विस्संति वा) जैसे कोई युवा युवतिको अपने हाथसे हाथमें पकड लेता है-आगे यहां और थाकी का सब कथन पहिले की तरह ही जानना चाहिये और अन्त में वह कान यहां तक ग्रहण करना चाहिये कि इस प्रकारके रूपों को उस भावितात्मा अनगारने न पहिले कभी अपनी विकृर्वणा शक्तिसे निष्पन्न किया है, और न वर्तमानमें वह ऐसे रूपों को निष्पन्न करता है और न आगे को वह ऐसे रूपोंको निष्पन्न करेगा ही । ऐसा करनेकी उसमें शक्ति है-यही बात इस कथनसे प्रकट की गई है। ऐसा जानना चाहिये। (से जहानामए के पुरिसे एगओ पडागं काउं गच्छेजा' हे भदन्त ! जैसे कोई पुरुप हाधर्म एक पताका को लेकर चलता है (एवामेव अणगारे वि भावियप्पा एगओ पडागा हत्थकिच्चगएणं अप्पाणेणं उइदं वेहायसं उप्पएज्जा?) इसी तरह से केवइयाई पभू असिचम्महत्यकिञ्चगयाइ रूबाई विउवित्तए ?) गौतम! ભાવિતાત્મા અણગાર, એવા કેટલાં રૂપનું તેની વિક્રિયા શકિતથી નિર્માણ કરી શકવાને समर्थ छ रे पिय३पाये डायमा सवार अने दाज धार शडीय? (से जहा नामए जुबई जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा तं चेव जाव विउविसु वा, विउविति चा, विउब्धिस्संति वा) यी शते । युवान र युपातन पाताना डाययी પકડીને પિતાના ભુજપાશમાં લપેટી એકાકાર બની જાય છે, ત્યાંથી શરૂ કરીને ઉપર્યુકત સમસ્ત કથન અહીં પણ ગ્રહણ કરવું જોઈએ. અહીં પણ એ જ વાત કહેવી જોઈએ કે આવી વિકુણા તેમણે ભૂતકાળમાં કદી કરી નથી, વર્તમાનમાં કરતા નથી અને ભવિષ્યમાં કરશે પણ નહીં. તેમની વિદુર્વણશકિતનું નિરૂપણ કરવાને માટે જ આ समस्त यन यु छ (से जहा नामए केइ पुरिसे एगओ पडागं काउंगच्छेज्जा)
महन्त ! रवी शते १२५ ७२ मे पाने, यासछे, एवमेव अणगारे वि भावियप्पा एगओपडागा इत्थ किचगएणं अप्पाणेणं उइदं वेहायसं