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प्रमेयचन्द्रिका टीका श.३ उ.४ सू.५ अणगारविकुर्वणानिरूपणम् ६५७ द्वितीयोऽपि आलापको भणितव्यः तथा च 'अनगारः खल्लु भदन्त ! भावितात्मा बाह्यान् पुद्गलान्, पर्यादाय यावन्ति राजगृहनगरे रूपाणि, एतान्ति विकुर्वित्वा वैभारं पर्व तम् अन्तोऽनुप्रविश्य प्रभूः समं वा विपमं कतुं, विपमं वा समं कर्तुम् ?' इति द्वितीयालापकाकारो बोध्यः, अत्र विशेषतामा 'णवर-परिआइत्ता पभू' नवरम्-अयं विशेषः पुनरेतावानेव यत् वाह्यपुद्गलान् पर्यादायैव उक्तपर्वतं तथा कर्तुं समर्थः इति ? गौतमः पुनः पृच्छति-से भंते किं माई विकुबइ ?' हे भदन्त ! स भावितात्मा अनगारः किम् मायी आलावगो' इसी तरह का द्वितीय आलापक भी कहना चाहिये अर्थात्-हे भदंत ! भावितात्मा अनगार बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके, राजगृह नगरमें जितने भी पशु पक्षी मनुष्य आदि के रूप हैं उतने रूपों को विकुर्वणा करके वैभार पर्वत के भीतर घुसकर उसे समस्थान में विपमस्थानवाला, और विपमस्थान में समस्थानवाला बना सकने के लिये समर्थ है क्या? ऐसा द्वित्तीय आलापक का आकार जानना चाहिये । इसमें विशेषता प्रकट करने के लिये प्रभु कहते हैं कि 'णवरं परियाइत्ता पभू' तात्पर्य इसका यही हैं कि इस द्वितीय आलापक में इतनी ही विशेपता हैं पूर्वोक्त अनगार बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके ही उक्त पर्वत को उपर्युक्त रीति के अनुसार कर सकता है। अब गौतम पुनः प्रभु से पूछते हैं-कि हे भदन्त ! आपने जो ऐसा अभी कहा हैं कि बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके ही भावितात्मा अनगार वैभार पर्वत को समस्थान में विषमस्थानवाला और विषमस्थान में समस्थानवाला कर सकता है-सो ऐसा करनेवाला अनगार मायी होता है कि अमायी होता है यही बात एवं चेव विडओ वि आलावगो मे ४ प्रभारी भी माला५४ ५५ ड! જોઈએ. તે બીજે આલાપક એ પ્રમાણે બનશે- હે ભદન્ત! ભાવિતાત્મા અણગાર, બાલ પુદગલોને ગ્રહણ કરીને, રાજગહ નગરમાં જેટલાં પશુ, પક્ષી, મનુષ્ય આદિ રૂપ છે એટલાં રૂપની વિમુર્વણુ કરીને, વૈભાર પર્વતની અંદર પ્રવેશ કરીને, તેના સમતલ ભાગેને વિષમ બનાવવાને તથા વિષમભાગોને સમતલ બનાવવાને શું સમર્થ છે? सा माला५४मा २ विशेषता छ त मतावाने भाट सूत्र२ ४३ छ 'णवरं परियाइत्ता पम' हेवानु तात्पर्य से छेते भएमा२ माबपुगसाने अडएर કરીને જ ઉપર કહ્યા પ્રમાણે કરી શકે છે. હવે ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને પૂછે छे , 'से भंते ! किं माई विकुबइ ? अमाई विकुन्बइ ?' 3 महन्त ! मेg