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________________ :भमेयचन्द्रिका दी. श. ३ उ.४ २.१ क्रियायावैचित्र्यज्ञानविशेषनिरूपणम् .६०५ हयं समवहतम् 'जाणरूवेण जायमाणं' यानरूपेण शिपिफांधाफारवता वैक्रिय "विमानरूपयानेन यान्ती गच्छन्तीं 'जाणइ' जानाति ? 'पासइ ? पश्यति । 'भगवांनाह-गोयमा ! एवं चेव' हे गौतम ! एवं चैव पूर्व वदेवेत्यर्थः। अर्थात् कश्चित् अनगारस्तां देवीं वैक्रियशरीरवतीमपि देवीरूपेणैव पश्यति, फक्षित्पुनः चैक्रियविमानयानरूपेणैव पश्यति नतु देवीरूपेण, कश्चित्तु उभयरूपेणापि पश्यति, कश्चित्तु उभयरूपेणापि नैव पश्यति अवधिज्ञानस्य विचित्ररूपत्वात् । पुनगौतमः पृच्छति-'अणगारेणंभंते! ' इस्पादि । हे भदन्त । अनगारः खलु 'भाचि अप्पा' भावितात्मा 'देवं सदेवीअं देवं देव्या सहितं-सदेविकम् 'वेउफो 'वेउन्धिय समुग्घाएणं समोहयं कि जो वैफिय समुद्घातसे समघहत होकर 'जाणरूवेण जायमाणं' यानरूप से शिपिका आदि आकार वाले वैक्रिय विमानरूपयान से जा रही हो 'जाणह' क्या जानता है ? क्या 'पासई' देखता हैं ? भगवान् इसका उत्तर देते हुए गौतमसे कहते हैं, कि 'गोयमा' हे गौतम ! 'एचंचेव' इस विषयमें उत्तर पूर्वो रूप से ही जानना चाहिये। अर्थात् कोई अनगार चैक्रिय शरीरवाली उस देवीको देवीके ही रूपसे देखता हैं, कोई अनगार चैक्रिय विमान यानरूपसे ही देखता हैं, देवीके रूप से नहीं देखता हैं, कोई उस देवीको उभयरूप से भी देखता है, और कोई एक अनगार उभय रूप से भी उस देवीको नहीं देखता है। इस प्रकार से अवधिज्ञान के मारा जानने की जो यह विचित्रता है वह स्वयं अवधिज्ञानकी विचित्रताको ही लेकरके है । अप गौतम मभुसे पूछते है कि 'अण बह-त! मावितात्मा २ २, 'देवि वेउन्विय समुग्घाएणं समोहयं । मि समुहधातथी युति बन जाणरूवेण जायमाणं ' यान३५ (शिst माना मा0 वय विमान३) गमन ४२ती वा जाणड' सन्य ज्ञानयी नयी શકે છે? અને સમ્યગ દર્શનથી જઈ શકે છે ? તેને આ પ્રમાણે ઉત્તર મળે છે "गोयमा! गौतम! 'एवं चेव मागायतमा भाग प्रमाणे उत्तर सम. જ. એટલે કે કોઈ અણગાર, વૈકિય શરીરવાળી તે રવીને દેવી રૂપે જ દેખે છે, કેઈ અણગાર તેને ક્રિય યાનરૂપે જ દેખે છે–-દેવીને રૂપે દેખતે નથી, કે અણુગાર તેને દેવીરૂપે પણ દેખે છે અને વિમાનરૂપે પણ દેખે છે, અને અણુગાર તેને દેવીરૂપે પણ દેખતે નથી અને વૈક્રિય વાનરૂપે પણ દેખતે નથી. આ રીતે ઉપરોકત બીજા પ્રશ્નના ઉત્તરરૂપે પણ ચાર નંગ (વિકપિ) બતાવ્યા છે. હવે ગૌતમ સ્વામી મહાવીર अशुने प्रभारी श्री. प्रम पूछे - अणगारेणं भंते ! भावियप्पा ' 6-!
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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