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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ३ उ. ३ सु. ३ जीवानां एजनादिक्रियानिरूपणम् ५५१ पदार्थान्तरं प्रतिपादयति वा अवशिष्टक्रिया संग्रहार्थमाह ' तं तं भावं परि " 'ति तं तं भावं परिणमति ! उत्क्षेपणाऽवक्षेपणाऽऽकुञ्चनप्रसाराणादिकं परिणाम मानोति । एपाँच एजनादिभावानां क्रमभावित्वेन युगपदसम्भवात् सामान्यापेक्षया 'सदा' इत्युक्तम् नतु प्रत्येकापेक्षया, तथा 'जीवे गं' इत्यनेन 'उदीरइ' किसी को जबर्दस्ती से चलता हैं तब, अथवा किसी अन्य पदार्थका प्रतिपादन करता है तय, यह जीव 'तं तं भावं परिणमह उस उस भावरूप से स्वयं परिणम जाता है । इतनी ही क्रियाओंको यह जीव करता रहता हैं सो बात नहीं हैं किन्तु और भी कई क्रियाए है जिन्हें यह प्रतिदिन किया ही करता है जैसे उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुञ्चन, प्रसारण आदि । अतः इन्हीं सब यहां अनुक्त क्रियाओं को संग्रह करनेके निमित्त सूत्रकारने 'तं तं' इत्यादि पाठ कहा है। ये सब एजनादि क्रियारूप भाव जीव में एक साथ तो होते नहीं है क्रम ऐसे ही होतें है परन्तु किसी न किसी समय में इनमें से कोइ न कोई क्रियारूप भावजीव में अवश्य ही होता रहता है. इसी बात को सूचित करनेके लिये सामान्यरूप से 'सया' ऐसा पद प्रयुक्त क्रिया है । प्रत्येक की अपेक्षा से 'सदा' पद प्रयुक्त नहीं "किया है । क्यों कि इन पूर्वोक्त क्रियारूप भावों में से कोई भी भाव स्थिररूप से सदा स्थायी नहीं रहता है । परन्तु इनमें से कोड़ न कोई भाव किसी न किसी समय में अवश्य रहता है । तथा જયારે કાઈને જખજસ્તીથી ચલાવે છે ત્યારે, ખથવા કોઇ અન્ય પદાર્યનું પ્રતિપાદન करता होय त्यारे, ते छत्र 'तं तं भावं परिणमइ' ते ते आवश्ये पोते परिशुभी જાય છે. જીવ આટલી જ ક્રિયાઓ કરતા રહે છે એવું નથી, પણ બીજી પણ અનેક ક્રિયાએ પ્રતિદિન કરતા રહે છે જેમકે ઉક્ષેપણુ (કાઇ ચીજને ઊંચે ફેકવી), અવક્ષેપણ, આપું ચન, પ્રસરણ વગેરૂં. તે ખધી ક્રિયાઓના સમાવેશ કરવાને માટે સૂત્રકારે 'तं तं ' त्यादि सूत्रपाठ भूध्यो छे.: આ સઘળા ઐજનાદિ ક્રિયારૂપ ભાવે જીવમાં એક સાથે તે। થતા નથી. ક્રમે ક્રમે થયા કરે છે. પણ કોઇ પણ સમયે જીવમાં કઈને કાર્ય ક્રિયારૂપ ભાવનું અસ્તિત્વ अवस्य होय. वातनुं सूथन ४२वा भाटे सामान्य३ 'या' पहने ५ચેત્ર કર્યો છે. પ્રત્યેકની અપેક્ષાએ ‘સદા' પદના પ્રયેગ કરવામાં આવ્યા નથી. કારણ કે પૂર્વોક્ત ક્રિયારૂપ ભાવેામાંથી કાઈ પણુ ભાવ સ્થિરરૂપે સદા ટકતા નથી. પણ તેમાંથી होने ोध लावनुं अस्तित्व अर्ध भए सभये अवश्य रहे है तथा 'जीवेणं' यह द्वारा
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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