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भगवति
ध्याथ यूयम् आर्तध्यानं कुरुथ, यावत्करणात् 'चिन्ताशोकसागरसंमविद्याः' इत्याद्युपर्युक्त सर्व संप्रायम्, 'तर णं से' ततः सामानिकदेव पृच्छानन्तरं खलु सः 'चमरे अरिंदे अनुरराया' नमरः अनुरेन्द्रः असुरराजः 'ते सामाणिय परिसोववणए' तानू सामानिकपदुपपन्नकान् 'देवे' देवान् 'एवं वयासी' एवम् वक्ष्यमाणमकारेण अवादीत् एवं खल देशणुपिया' एवं वक्ष्यमाणं खलु कारणं मम शोकपरितापयोः, गो देवानुमियाः । यत् किल ' मए ' मया 'समणं भगवं' श्रमण भगवन्तं महावीरम् 'नीसाए' निश्रया 'सक्के देविंदे देवराया' शक्रोः देवेन्द्रो देवराजः 'सयमेन' स्वयमेव एकाकिनैव 'अवासाइए ' अत्याशातितः अत्याशावना त्रिपयकर्तुमिष्टतया उपयुतः 'तए णं तेणं परिकुविए णं समाणेणं' ततः खलु ममोपद्रवानन्तरं तेन शक्रेण परिकुपितेन अतिहै । ' किं णं देवाणुप्पिया ' हे देवानुप्रिय ! क्यों 'ओहयमणसंकप्पा' आप अपहृतमनः संकल्प होकर 'जाव' यावत् 'झियायह' आर्त्तिध्यान कर रहे हैं ? यहां यावत्पद् से 'चितासोयसागरं संप्रविट्ठेः इत्यादि पूर्वोक्त संघ पद ग्रहण किये गये हैं। उनकी इस बात को सुनकर 'ए' बाद में 'से चमरे असुरिंदे असुरराया' उस असुरेन्द्र असु रराज चमर ने 'ते सामाणिय परिसोववन्नए देवे उन सामानिक परिपदा में उत्पन्न हुए देवोंसे 'एवं वयासी' इस प्रकार कहा ' एवं खलु देवाणुप्पिया' हे देवानुप्रियो ! मेरे शोक और परिताप का कारण यह है कि - 'सयमेव' अकेले ही 'मए' मैंने 'समणं भगवं महावीरं ' श्रमण भगवान महावीर कॉ 'णीसाए' आसरा लेकर के ' देविंदे देवराय संक्के' 'देवेन्द्रं देवराज शक्र को 'अच्चासाइए' उसकी शोभासे परिभ्रष्ट करने का दुःसाहस किया- ' तरणं परिकुचिएणं समाणेणं ' 'किं णं देवाणुपिया ओहयमंणस कप्पा जान झियायह' हे देवानुप्रिय ! शिता शा भाटे ४। छो ? मही 'यावद (जायें) ' यहथी 'चिंतासोयसागरस परि इत्यादि सूत्रो ड ४रवामां भाग्या छे. 'तरणं' सोभानि देवानी ते वात सोलजीने 'से चमरे अरिंदे असुरराया' असुरेन्द्र असुरराम थभरे भने 'एच' बयासी' भाभा . - ' एवं खलु देवाणुपिया !' डे हेवानुप्रियो । भारा शोधनु र - 'सयमेव मए समणं भगव महावीरं णीसाए' में वे डा श्रमण भगवान महावीरनो आश्रय बने 'देविदे देवरांयसक्के' हेरेन्द्र देवराज ने 'अच्चासाइए' अपमानित श्वानु, दुःसाहस अर्थ "तर्पणं परिकुविपुर्ण समाणेणं' तेथी भारा पर अत्यंत 'डोपायभान थ४ने 'ममं, वहाए' मा १ध खाने भाटे
प्रभा
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