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अथ दशमोदेशक प्रारभ्यते
॥ देवाना मओवक्तव्यताप्रस्ताव ॥ मूलम्-'रायगिहे जाव एव वयासी-चमरस्स ण भते । असुरिंदस्स, असुररण्णो कइ परिसाओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! तओ परिसाओ पण्णत्ताओ त जहा समिआ, चडा, जाया एव जहाणपुवीए जाव-अच्चुओ कप्पो, सेव भते । सेव भते ! त्ति । ॥ सू० १॥
छाया-राजगृहे यावत-एवम् अवादी-चमरस्य भदन्त ! अमुरेन्द्रस्य ममुरराजस्य कति पद प्राप्ता ' गौतम ! तिस्र पर्पद प्राप्ता , तद्यया शमिया (शमिता) चण्डा, जाता, एवम् ययाऽऽनुपूर्व्या यावत् अच्युत. कल्प , तदेव भदन्त । तदेव भदन्त ! इति । ॥ सू० १ ॥
तीमरे शतकका दशमा उद्देशक प्रारभ
देवोंकी सभाकी वक्तव्यता'रायगिहे जाव एव चयासी' इत्यादि ।
सूत्रार्थ-(रायगिहे जाव एव घयासी) राजगृह नगरमें गौतमने यावत् प्रभु से इस प्रकार पूछा-(चमरस्स ण मते ! असुरिंदस्स असुररण्णो कह परिसाओ पण्णत्ताओ) हे भदन्त ! अमुरेन्द्र असुर राज घमर की कितनी सभाएँ कहो गई हैं ? (गोयमा) हे गौतम ! (सओ परिसाओ पण्णत्ताओ) असुरेन्द्र असुरराज चमरकी तीन समाए कही गई है। (त जहा) जो उस प्रकार से हैं-(समिया,
ત્રીજા શતકનો દસમો ઉદ્દેશક પ્રાર ભદેવની સભાનું વર્ણન'रायगिहे जाप एव वयासी'
स्वार्थ- (रायगिहे नयर जाव एम पयासी) श नसभा (यवत) गौतम स्वामी महापा२ प्रभु ५७१- (चमरस्स ण मते! अमुरिदस्स Vणा का परिसाओ पण्णतामो ?) ३ महन्त ! मसुरेन्द्र ससुराल यभरनी
पामा 881 - (गोयमा ! तयो परिसामो पप्णचाओ) भुरेन्द्र, सुशन अभरनी न समाये ही - (जहा) ते र समान नाम