________________
सुबा डीका स्था०५ उ०२ ०८ आंत्रवादिनिरूपणम्
टीका - पंच आसवदारा ' इत्यादि -
आस्रवद्वाराणि - आखरणम् - आस्रवः- जीवरूपे तडागे कर्मरूपजलरय प्रवेशः तस्य द्वाराणीव द्वाराणि उपायाः, तानि दि पंच संपकानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा मिथ्यास्वम्=अनत्त्वे तत्वाध्यवसानरूपं विपरीतश्रद्वानमित्यर्थ इति प्रथमं स्थान १| अविरतिः पापक पैतोऽनिवृत्तिः निवत्तेरभावः २ प्रमादः - अनवधानता
अनन्तर सूत्र में " जिनाज्ञा को माननेवाला जिनाज्ञाका विराधक नहीं होता है " ऐसा कहा गया है और जो जिनाज्ञा को नहीं मानता है वह जिन (ज्ञाका विराधक होता है, जिनाज्ञाकी विराधना आम्रव रूप होती हैं । अतः अब सूत्रकार आस्रव द्वारों का और आस्रव द्वारों के रूकने रूप संवर द्वारों का तथा दण्ड रूप आस्त्रव विशेषांका कथन करते हैं -- " पंच आसवद्वारा पण्णत्ता " इत्यादि -- टीकार्थ- आस्रव द्वार पांच कहे गये हैं, जैसे- मिथ्यात्व १, अविरति २, प्रमाद ३, कषाय ४ और योग ५ | पांच संघर द्वार कहे गये हैं, जैसेसम्यक्त्व १, विरति २, अप्रमाद ३, अक्रपायिता ४ और अयोगिता ५ दण्ड पांच कहे गये हैं, जैसे- अर्थदण्ड १, अनर्थक २, हिंसादण्ड २, अकस्मात् दण्ड ४ और दृष्टिविपर्यास दण्ड ५.
"
जीवरूप तालाब में कर्मरूप जलका जो प्रवेश है वह आस्रव है, इस आस्रव के द्वार जैसे जो द्वार हैं वे आलवद्वार हैं। आस्रव के आनेके जो उपाय कारण हैं वे पांच हैं, जैसे-मिथ्यात्व आदि अतत्वमें જિનાજ્ઞાનું પાલન કરનારા જિન જ્ઞાનો વિરાધક થતા નથી, ” એવુ' આગળ કહેવમાં આવ્યું છે, જે જિનાજ્ઞાને માનતા નથી તેએ જિના જ્ઞાના વિરાધક ગણાય છે જિનાજ્ઞાની વિરાધના આસ્રવ રૂપ હાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર અસવદ્વારનું અને આસ્રવેાનો નિરોધ કરનારા સ'વરદ્વારાનું તથા દંડ રૂપ આસવિશેષેનું કથન કરે છે.
'पच आसत्रदारा पण्णत्ता " त्याहि-
66
यांग आवद्वारा उह्यां छे - (१) मिथ्यात्व (२) अविरति, (3) प्रभा (४) प्रषाय, अने (५) योग, पांय सवरद्वार ह्यां--(१) सभ्य४त्व, (२) विरति, (3) अप्रमाद, (४) अनुषायिता भने (4) अयोगिता 'उ पाथ ह्यां छे – (१) अर्थ:, (२) अनर्थ: 3, (3) डिसाइंड, (४) अस्मात् छौं भने (4) दृष्टि विपर्यास 'ड.
જીવ રૂપ તળાવમાં કમ રૂપ જળનો જે પ્રવેશ થાય છે, તેનું નામ આવ છે. તે આસવના દ્વાર જેવાં જે દ્વાર છે તેમને આસવદ્વાર
छे. भावे ( ) ना आगमना नीये अभाये यांथ भरो। --