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________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र.शु. अ. १५ आदानीयस्वरूपनिरूपणमं ५ ४७ ___अन्वयार्थः-(तहागया) तथागता'-अपुनरावृत्या गताः मोक्ष प्राप्ताः (मेहावी) मेधाविनः केवलज्ञानिनः तीर्थकरगणधरादयः (कयाइ) कदाचित्-कस्मिश्चिदपि. काले (को) कुतः कथं केन प्रकारेण (उप्पज्जति) उत्पद्यन्ते इति भावः (अप्पडिन्ना) अप्रतिज्ञाः अनिदानाः आशंसारहिता (तहागया) तथागता तीर्थकरगणधरादयः (अणुत्तरा) अनुक्तरा लोकोत्तर के दलदर्शनवन्तः (लोगस्स) लोकस्य-जीवसमूहस्य (चक्खू) चतुः-चक्षुरिव चक्षुः सदसदर्थप्रदर्शकत्वान्नेत्रभूताः सन्तीति ॥२०॥ प्राप्त 'मेहावी-मेधाविना' कोवलज्ञान बाले तीर्थकर गणधर आदि 'कथाह-कदाचित् किसी भी कालमें 'कओ-कुतः' किस प्रकारसे 'उपज्जति-उत्पद्यन्ते उत्पन्न होता है ? अर्थात उत्पन्न नहीं होता है 'अपडिन्ना-अप्रतिज्ञाः' निदान रहित 'तहागया-तधागता' तीर्थंकर गणधर आदि 'अणुत्तरा-अनुत्तरा' लोकोत्तर दोवलज्ञान और केवल दर्शन वाले 'लोगस्स-लोकस्य' जीवसमूह के 'चक्खू-चक्षुः' नेत्रभूत कहे जाते हैं ॥२०॥ अन्वयार्थ--जो पुनरागमन से रहित होकर मोक्ष को प्राप्त हुए हैं और मेधावी अर्थात् केवलज्ञानी हैं, वे क्या किसी समय किसी प्रकार जन्म लेते हैं ? अर्थात् उनका कभी पुनर्जन्म नहीं हो सकता। वे सब प्रकार की कामना से रहित, लोकोत्तर केवल-ज्ञान-दर्शन से सम्पन्न तीर्थंकर गणधर आदि जीवों के लिए चक्षुरूप होते हैं अर्थात् सत् अलत् पदार्थो के प्रदर्शक होने के समान होते हैं ॥२०॥ आता 'मेहावी-मेधावीनः' वज्ञानवाण तीथ ४२ गध२ बिगर 'कयाइ-कदाचित्' मे ५y ॥णे 'कओ-मुत.' या ARथा 'उप्पज्जंति-उत्पधन्ते' Gurt. थाय छ ? अर्थात् 64-न यता नयी. 'अपडिन्ना-अप्रतिज्ञाः' निशान हित 'तहागया-तथागताः' तीथ'४२ पशुधन विगेरे 'अणुत्तरा-अनुत्तराः' सत्तर व ज्ञान मन पर शनवाणा 'लोगस्त-लोकस्य' ७१ समूहना 'चक्खू-चक्षुः' नेत्र३५ ४ाय छे. ॥२०॥ અન્વયાર્થ–જે પુનરાગમનથી રહિત થઈને મેક્ષને પ્રાપ્ત થયા છે, અને મેધાવી અર્ધાત કેવલજ્ઞાની છે, તેઓ શું કઈ સમયે કઈ પણ પ્રકારે જન્મ ગ્રહણ કરે છે? અર્થાત્ તેઓને પુનર્જન્મ કોઈ પણ વખતે થતું નથી. તેઓ બધા પ્રકારની કામનાઓથી રહિત લેકેત્તર કેવળ જ્ઞાન દશ. નથી યુક્ત તીર્થકર ગણધર વિગેરે જે માટે નેત્ર રૂપ હોય છે. અર્થાત સત અસત્ પદાર્થોને બતાવવાળા હોવાથી નેત્રરૂપ હોય છે. પરના
SR No.009305
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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