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सूत्रकृतास्
अन्वयार्थ :- (जे) ये महापुरुषाः (सुद्ध) शुद्धं जिनेन्द्रपतिपादितत्वाभिमलम् - अतएव (अलिस) अनीदृशम् अनन्यसदृशम् अनुपमम् पुनश्च (पडिपुन्नं) प्रतिपूर्ण मोक्षमार्गसाधकभावपरिपूर्णत्वात् एतादृशं (धम्मं ) धर्म श्रुतचारित्रलक्षणम् (अक्खंति) आख्यान्ति-भव्येभ्य उपदिशन्ति स्वयमाचरन्ति च तस्य तादृशस्य
'जे धम्म' सुद्धसक्खति' इत्यादि ।
शब्दार्थ - 'जे - यः' जो महापुरुष 'सुद्ध-शुद्धम्' जिनेन्द्र प्रतिपादिन होनेसे निर्मल अत एव 'अलिस अनीदृशम्' अनुपम 'पडिपुन्न' - प्रतिपूर्णम् ' प्रतिपूर्ण मोक्षमार्ग के माधक भाव परिपूर्ण होने से इस प्रकारका 'धम्म- धर्मस्' रचारित्र रूप धर्म को 'अवंति - आख्यान्ति' व्याख्यान द्वारा कथन करते हैं अर्थात् भवों को उपदेश करते हैं और स्वयं आचरणभी करते हैं 'अलिलस्स- अनीदृशस्य' पूर्वोक्त धर्म का 'जं ठाणं - यत्स्थानम् ' जो स्थान अर्थात् आधारभूत जो मुनि 'तस्ततस्य' उनका 'जम्मका - जन्मकथा' जन्म की बात भी 'कओ - कुतः ' कहांसे हो सकती है ? अर्थात् जन्म धारण करने की बात तो दूर रही परंतु 'जन्म' ऐसा वचन भी नहीं कह सकते हैं ॥१९॥
'अन्वयार्थ - जो महापुरुष जिनेन्द्र प्रतिपादित होने के कारण निर्मल, अतएव अनुपम, प्रतिपूर्ण अर्थात् मोक्षमार्ग साधकता से परिपूर्ण, धर्म का भव्य जीवों को उपदेश देते हैं और स्वयं धर्मका आचरण करते
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'जे धम्मं सुद्ध मक्खति' त्याहि
शार्थ - 'जे-य:' ने महापु३५ 'सुद्ध - शुद्धम्' भनेन्द्र प्रतिपादित होवाथी निर्भय मतोत्र 'अणे' लस - अनीदृशम्' अनुपम 'पडिपुण्णं प्रतिपूर्णम्' संपूर्ण मे क्षभार्गनी साध भाव परिपूर्श होवाथी था अारना 'धम्मं - धर्मम्' श्रुतयापित्र ३५ धर्म'ने 'अक्खति - आख्यान्ति' व्याभ्यान द्वारा प्रथन કરે છે અર્થાત્ ભવ્યેાને ઉપદેશ કરે છે અને પેતે આચરણ પણ કરે છે. 'अणेलिसस्स - अनीदृशस्य' पूर्वोस्त धर्मनु 'जं ठाण - यत्स्थानम्' ने स्थान अर्थात् आधार भूत के भुनि 'तस्स - तस्य' तेनी 'जम्म कहा- जन्मकथा' ४न्भनी वात पशु 'कओ - कुतः' यांथी यह शडे ? अर्थात् बन् धार वानी वात तो દૂર રહી પર’તુ ‘જન્મ' એવું વચન પણ કહી શકાતુ નથી ॥૧૯॥ અન્નયા —જે મહે પુરૂષ જીનેન્દ્ર પ્રતિપાદિત હાવાના કારણે નિમલ, અતએવ અનુપમ, પ્રતિપૂ અર્થાત્ મેક્ષમાર્ગના સાધક પણાથી પરિપૂર્ણ ધમા ભય જીવાને ઉપદેશ આપે છે, અને સ્વયં આચરણ કરે છે, જે