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________________ ५३८ सूत्रकृतासूत्रे __ अन्वयार्थः--(एगेसिं) एकेषां केपाश्चिद् वादिनाम् (आहिय) आख्यातंकथनमस्ति यत् देवा एव अशेषदुःखानामन्तं कुर्वन्तीति किन्तु न तया संभवत्यतः (इह) जिनप्रवचने तीर्थकरादीनां कथनं यत् मनुष्या एव (दुक्खाणं) दुःखानां शारीरमानसानाम् (अंत) अन्त-नाशं (करंति) कुर्वनि नान्ये अन्यत्र देवादिभवे धर्माराधनस्यासंभवात् । अत्र विषये (एगेसिं पुण) एकेपा केपाश्चिद् गणधरादीनां रिक एवं मानसिक दुःखों का 'अंत-अन्तम्' नाश 'करंति-कुर्वन्ति' करते हैं अन्य देवादि भवमें धर्माराधन का अभाव है, अतः वे मोक्ष गति प्राप्त नहीं कर सकते हैं म विषय में 'एगेसिं पुग-एकेपा पुनः' किसी गणधर आदि का 'आहियं-माख्यातम्' कथन है कि मनुष्यके विना 'अयं-अयम्' आगे वाहे जाने वाला 'ससुस्वए-समुच्छूय:' जिन धर्म श्रवणादि रूप अभ्युदय भी 'दुल्लहे-दुर्लभ' दुर्लभ है फिर मोक्ष गमन की तो घात ही क्या है ॥१७॥ ___ अन्वयार्थ-किसी किसी का ऐसा कहना है कि देव ही समस्त दुःखो का अन्त करते हैं किन्तु ऐसा हो नहीं सकता। जिनप्रवचन में तीर्थ कर आदि झा धन है कि मनुष्य की शारीरिक एवं मानसिक दुखों का अनम कर सकते हैं। उनसे भिन्न छोई अन्य प्राणी नहीं कर सकता, क्योकि देव आदिके भव में धर्म की आराधना असंभव है। किन्हीं गणधर आदि का कथन है कि समस्त ढःखों का अन्त अन्तम्' ना. 'करति-कुर्वन्ति' ४२ छ मन्य देव विरेना सपमा धारा ધનનો અભાવ છે તેથી તેઓ મોક્ષ ગતિ પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. આ सधमा 'एसिं पुण-एकेषां पुन' । १५२ विसरेनु 'आहियं-आख्यातम्' ४ छ है भनुष्य शिवाय 'अयं-अयम्' वे अपामा भावना। 'समु स्सए-समुन्छु ' श्रवण ३५ २५ युट्य पy 'दुल्लभे-दुर्लभः' દુર્લભ છે તે પછી મોક્ષગમનની તે વાત જ શી કરવી ? ૧૭ અન્વયાર્થ–કેઈ કેઈનું એવું કહેવું છે કે-–દેવજ સઘળા દુકાને અંત કરે છે. પરંતુ એવું બની શકતું નથી પ્રવચનમાં તીર્થકર વિગેરેનું કથન છે કે મનુષ્ય જ શારીરિક અને માનસિક દુઓને ન શ કરી શકે છે તેનાથી ભિન્ન કેઈ અન્ય પ્રાણિ તેમ કરી શકતા નથી. કેમકે દેવ વિગેરેના ભવમાં ધર્મની આરાધના અસંભવિત છે કઈ કઈ ગણધર વિગેરેનું કથન
SR No.009305
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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