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________________ ५१६ सूत्रकृतास्त्र ___अन्वयार्थः--जीवितेच्छां परित्यज्य ते किं कुर्वन्तीत्याह-ते असंयमजीवनेच्छारहिता महापुरुषाः 'जीवियं' जीवितम् असंयमजीवनं 'पिट्टओ किचा' पृष्ठतः कृत्वा अनादृत्य जीवननिरपेक्षो भूत्वेत्यर्थः 'कम्णं' कर्मणां ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधानां चतुर्णा घातिकर्मणां वा (अंतं) अन्तं नाशं 'पावंति' माप्नुवन्ति सकलकर्मक्षपणेन मोक्षं प्राप्नुवन्तीत्यर्थः । (जे) ये सकलकर्मक्षपणासमर्थाः भवेयुस्ते 'जीवियं पिट्टओ निच्चा' इत्यादि । शब्दार्थ--'जीवियं-जीवितम्' असंघम जीवन को 'पिट्ठभी किच्चा --पृष्ठतः कृत्वा' अनादर करके 'कम्मुणं-कर्मणां ज्ञानावरणीयादि आठ प्रकार के धातिया कर्म के 'अंतं-अन्तम्' अंतको 'पावंति-प्राप्नुवन्ति' प्राप्त करते हैं 'जे-2 जो पुरुष सकलकर्म के क्षपण में असमर्थ होते हैं वे पुरुष 'कम्मुणा-कर्मणा' तप संयमआदि सदनुष्ठान रूप क्रिया से 'समुहीभूया-संमुखीभूताः' मोक्षके सन्मुख होकर 'भरगं मार्गम्' जिनोक्त -सम्यक दर्शन ज्ञान चारित्ररूप मोक्षमार्ग को 'अणुसासई-अनुशासति' भव्यों को उपदेश करते हैं अर्थात् भव्यों को मोक्षमार्ग उपदेशद्वारा दिखाते हैं ॥१०॥ अन्वयार्थ---जीवन के प्रति निस्पृह होकर वे क्या करते हैं सो कहते हैं असंयमजीवन की इच्छा से रहित महापुरुष असंयमी जीवन को त्याग कर अर्थात् उसले निरपेक्ष होकर ज्ञानावरणीय आदि आठों कर्मों का या चार घातिया कर्मों का अन्त कर देते हैं और मोक्ष प्राप्त जीवय पिडओ किच्चा त्याह शा-'जीवियं-जीवितम्' अस यम बनने ' पिओ किच्चा-पृष्ठतः कृत्वा' मना२४ीने 'कम्मुण-कर्मणां' जनावरणीय माहि 8 प्रारना घातिया मना 'अत -अन्तम्' मतने 'पावंति-प्राप्नुवन्ति' प्रात ४२ छे. 'जे -ये रे घु३५ स४१ मिना क्षपामा असमय हाय छ । ५३५ 'कम्मुणा -फर्मणा' त५ सयम विगैरे सहनुष्ठान ३५ ठियाथी 'समुही भूया-संमुखीभूताः' भाक्षनी सन्भु मनीने 'मग्ग-मार्गम्' नात सभ्य शन, ज्ञानयारित्र ३५ भाक्षमाणने 'अणुसासइ-अनुशासति' नव्याने पशि २ छे. अर्थात् ભાને ઉપદેશ દ્વારા મોક્ષમાર્ગ બતાવે છે. ૧૦ भन्वयार्थ-वन प्रत्ये निस्पृह धन तसा शु ४२ छ १ मे ४३. વામાં આવે છે–અસંયમમય જીવનની ઈચ્છાથી રહિત મહાપુરૂષ અસંયમી જીવનને ત્યાગ કરીને અર્થાત તેનાથી નિરપેક્ષ બનીને જ્ઞાનાવરણીય વિગેરે આઠે કર્મોને અથવા ચાર ઘાતિયા કર્મોને અંત કરે છે. અને મોક્ષ પ્રાપ્ત
SR No.009305
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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