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________________ 'समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १३ याथातथ्यस्वरूपनिरूपणम् ३७७ हितं धर्ममुपदिशेयुः। तथा यानि निन्दितानि 'धर्मप्रतिबन्धकानि कर्माणि तानि, तथैव पूजालाभादि प्रयोजकानि तानि वा धीरपुरुषा न 'सेवन्ते -इति समुदितार्थः ॥१९॥ द्रव्यक्षेत्रकालभावमबुद्ध्वा यो मुनिरुपदिशति तस्य कीदृशं फलं भवतीत्यत आह-केसिचि' इत्यादि। मूलम्-कसिंचि तकाई अबुज्झ भावं, खुद्दपि गच्छेज्ज अलबहाणे। आउल्ल कालाइयारं वैघाए, लैद्धाणुमाणे य परेसु अट्ठ।२०। छाया-केपचित्तणाऽचुद्ध्वा भावं, क्षौद्रमपि गच्छेदश्रदधानः । आयुषः कालातिवारं व्याघातं, लब्धानुमानश्च परेवान् ॥२०॥ तथा जो योगव्यापार-निन्दित हैं, धर्म के बाधक हैं और पूजा लाभ आदि के प्रयोजक हैं, उनको धीर पुरुष सेवन न करे।॥१९॥ द्रव्ध क्षेत्र काल और भाव को जाने बिना जो मुनि उपदेश देता है। उसे कैसे फल की प्राप्ति होती है। यह कहते हैं-'केसिचि तकाई" इत्यादि। शब्दार्थ-तक्काई-तर्केण' अपनी बुद्धि के तर्क से 'केसिधिकेषाश्चित्' मिथ्यात्व भाव से जिनकी बुद्धि कुंठित होगई है ऐसे पुरुष के 'भावं-भावम् अभिप्राय को 'अधुज्झ-अवुद्ध्वा न जानकर साधु ‘यदि उपदेश देवे तो 'असहहाणे-अश्रदधाना' वह उस उपदेश में श्रद्धा न रखता हुआ अपने मन्तव्यों की निंदा सुनकर 'खुईपि-क्षद्रत्वमपि' उपदेशकरमे वालेके प्रति विरुद्वभाव को 'गच्छेज्जा-गच्छेत्' प्राप्त हो તથા જે યોગ વ્યાપાર નિદિત છે, ધર્મને બાધ કરવાવાળા છે, અને પૂજા, લાભ વિગેરેની પ્રવૃત્તિ કરાવનારા છે, તેનું ધીર પુરૂષે સેવન કરવું નહી પલા દ્રવ્ય ક્ષેત્ર અને ભાવને જાણ્યા વિના જે મુનિ ઉપદેશ આપે છે. તેને वु ३५ प्राप्त थाय छ, ते मतावतां सूत्र२ 'केसिंचि तकाई' या ગાથા કહે છે. शहाथ-'तक्काई-तकेंण' यानी मुद्धिन तथा 'केसिवि-केषान्वित -भिभ्या माथी मनी मुद्धि हित 5 साय मेl y३पना 'भाषभावम्' भनिभायने 'अज्ज्ञ-अबुद्ध्वा' या विना साधुन पहेश भारत 'असरहाणे-अश्रद्दधान.' ते 22 पदेशमा श्रद्धा न ४२तां पाताना मतव्योनी निet Aiमणीने 'खुइपि-क्षुद्रत्वमपि' पहेश ४२नार प्रत्ये वि३ मा 'गच्छेन्ना सू०४८
SR No.009305
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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