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________________ सूत्रकृतागपत्रे ____ अन्वयार्थः-(से स. पूणे तोऽहङ्कारवान्न साधुः (एगंतकडेण उ) एकान्त. कूटेन तु-अन्यन्त मोहमायादौ समासक्तः (पले६) पर्येति-संसारसागरमेव पुनः पुनः प्राप्नोति, न कदाचित् संसाराद् विमुक्तो अनति (मोणपसि) मौनपदे संपमे (जोते) गोत्रे निरवच दाणी--रामुद्रागात्मकागमाधारभूते (ण विज्जइ) न विधते-न तिष्ठति (जे) गः खलु (माणणटेण) माननार्थन-समानार्थेन (वसुमन्नतरेण) यसमन्यतरेण-संयमोराण ज्ञानादिना च मन्दं करोति एवम् (अबु. ज्झमाणे) अबुद्धयमानः-परमार्थमबुध्यमानः सन् (विउक्कसेज्जा) व्युत्कर्पयेत्आत्मानं सत्कारमनादिया गर्वयुक्त रूगेति ॥२॥ मौनपदे' वह संबन - 'गोन्त -गोत्रे' आारों के आधार रूप 'ण विज्जइन विद्यते' नहीं है 'जे-या सर्वज्ञ सतमें जो पुरुष 'माणगडे ग-माननार्थेन' समानादिसे तथा 'वसन्तरेण-वस्तुमन्तरेण लंधमके उत्कर्ष से अथवा ज्ञानादि से बद करता है ऐला पुरुष 'अधुज्ज्ञमाणे-अवुध्यमानः परमार्थ को नहीं जानता हुआ विउकजा-व्युत्क्रयेत अपने आत्माको सरकार और मानादि से नीचे गिराता है।९॥ अन्वयार्थ-वह पूर्वोक्त अहंकारी साधु अत्यन्त मोह माया के जाल में फंसकर संसार रूप समुद्र में वारंवार दृषता है कभी भी संसार से विमुक्त नहीं हो पाता, और निरवद्य आगमका आधारभूत संयम मार्ग में नहीं रहता और अपने संमानादि प्राप्ति के लिए संयमोस्कर्ष एवं ज्ञानादि से मद (अहंकार) करता है और परमार्थ तस्व को नहीं जानता हुभा अपने को साकार मानादि से नीचे गिराता है ॥९॥ पदे' त अयममा ‘गोत्त-गोत्रे' भागभाना माघार ३५ ‘ण विज्जइ-न विद्यते' थ ता नथी 'जे-यः' रे ५३५ सजना मतमा 'माणणद्वेण-माननार्थेन' समान विरोधी तथा 'वसुमन्नतरेण-वसुमन्यतरेण' सयमना G४५°या भया ज्ञानाहिया मह ४२ छ । ५३५ 'अवुज्झमाणे-अवुध्यमानः' ५२भाधान न तो थ। 'विउक्कसेज्जा-व्युत्कर्पयेत्' पाताना यात्माने सहार અને માનાદિથી નીચે પાડે છે. પેલા - અવયાર્થ–એ પૂર્વોક્ત અહંકારી અત્યંત મોહમાયાની જાળમાં ફસાઈને સંસાર રૂપી સમુદ્રમાં વારંવાર ડૂબે છે, કેઈ પણ સમયે સંસારથી મુક્ત થઈ શકતા નથી તથા નિરવદ્ય અગમના આધારભૂત સંયમ માર્ગમાં રહેતા નથી. અને પોતાના સન્માનાદિની, પ્રાપ્તિ માટે સંયમત્કર્ષ તથાજ્ઞાનાદિમાં મદ (અહંકાર) કરે છે. અને પરમાર્થ તત્વને જાગ વિના જ પિતાને સત્કાર અને માનપાનથી નીચે પાડે છે. તે
SR No.009305
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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