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सूत्रकृताङ्गो ___ अन्वयार्थः-(जे) यः कश्चित् (विग्गहीए) विग्रहिका-सदैव कलहप्रियो भवति तथा (अन्नायभासी) अन्यायभाषी-गुरुदीनामपि निन्दको भवति (से) स:-तथाविधः पुरुषः (समे) समः-मध्यस्था (न होइ) न भरति (अझ अपसे) अझंझापाप्तः-कलहवर्जितो न भवति, मायारहितोऽपि न भवति, तस्मात् काधा. दयो दोषाः परित्याज्याः, मध्यस्थः को भावीत्याह-'उपवायकारी य' उपपातकारी च दोपरहितो गुर्वादीनां निदेशकारका आचार्यादीनामाज्ञापालकः 'य' च-पुनः 'हरीमणे' हीमनाः-लज्जाशीलः संयमशीलो वा तथा-'एगंतदिट्ठीय' एकान्तदृष्टिश्च जिनेन्द्रमार्गे अत्यन्तश्रद्वालुः 'अमाहरूदे' अमायिरूपः-मायावनितो मध्यस्थो भवति ।।३।। नहीं होलकता है अतः क्रोधादिकषायों का त्याग करना उचित है परंतु 'उबवायकारी य-उपपातकारी च' जो गुरु की आज्ञा का पालन करता है 'य-च' और 'हरीमणे-ड्रीमनाः' पापकरने में गुरुमादि से लज्जित होता है तथा 'एगंरदिट्ठी-एकान्तदृष्टिः' जिनोदित मार्ग में अत्यन्त श्रद्धा रखनेवाला होता है ऐसा पुरूप 'अमाइरूपे-अमाथिरूप:' मायारहित होने से मध्यस्थ होसकता है ॥६॥ ____ अन्वयार्थ --जो कोई हमेशा कलहप्रिय होता है और गुरुजन वगैरह का भी निन्दक होता है, ऐसा पुरुष कभी भी मध्यस्थ नहीं हो सकता । और कलह से वर्जित भी नहीं होता, एवं मापा से रहित भी नहीं हो सकता इसलिये क्रोधादि दोपों को छोड़ देना चाहिये। गुरु जन वगैरह का आज्ञाकारी और अनुचित कार्य करने में शरमाने नथी. मत: होपाति-पायांना त्या ४२ मे योग्य छे. परंतु 'उववाय कारी य-उपातकारी च' रे शु३नी माज्ञ'तुं पालन ४२ छ 'य-च' भने 'हरी. मणे-हीमनाः' ५५ ४२वामा २३ विगैरे यांसे शर्मिही मने छ. तथा 'एग तदिवी-एकान्तहष्टि.' ति भागमा अत्यत श्रद्धाय छे, मेवा ५३५ 'असायिरूवे -असायिरूप.' माया हित पाथी मध्यस्थ थ छे. ॥६॥
અન્વયાર્થ-જે કઈ હમેશા કલહપ્રિય હોય છે, અને ગુરૂજન વિગેરેને પણ નિંદક હોય છે, એ પુરૂષ કેઈ પણ સમયે મધ્યસ્થ થઈ શકો નથી અને કલહ રહિત પણ થઈ શકતો નથી. તેથી ક્રોધ વિગેરે દે ને છોડી દેવા જોઈએ. ગુરૂજન વિગેરેના આજ્ઞાપાલક તથા અનુચિત કાર્ય