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________________ संमयार्थबोधिनी टीका प्र शु. अ. ११ मोक्षस्वरूपनिरूपणम् मूलम्-जहा ढको य कंका य, कुलला मग्गुका सिंही। मच्छेसणं झियायंति, झाणं ते कल्लुसाधमं॥२७॥ छाया-यथा ढङ्काश्च कङ्काय, कुररा मदुगुकाः शिखिनः । । मत्स्यैपणं ध्यायन्ति, ध्यान तत्कलुषाधमम् । २७॥ .... ' अन्वयार्थ:-(जहाँ) यथा-येन प्रकारेण (हंकाय कंकाय कुलला मग्गुफा सिंही) ढकाश्च कङ्काच कुरराः मद्गुको शिखिन:-एते पंक्षिविशेषा जलाशयाश्रया नहीं हो जाती। ऐसे अशुभ ध्यानी मोक्षमार्ग रूप भावसमाधि से रहित होते हैं अर्थात् मोक्षमार्ग से दूर और दूरतर ही रहते हैं। . ., आशय यह है कि बीजों को, सचित्त जल को एवं अपने लिए पनाये गये आहार को भोगने वाले आर्तध्यान करते हुए भावसमाधि से अत्यन्त दूर ही रहते हैं ॥२६॥ _ 'जहा ढका य क का थ' इत्यादि। शब्दार्थ-'जहा-यथा' जिस प्रकारसे 'ढ काय काय कुलला-मरगु का सीही-ढंकाश्च कंकाश्च कुररा सद्गुकाः' शिखिनः' ढंक, कंक, कुरर, जलमुर्गा और शिखि नामके जलचर पक्षिविशेष 'मच्छेप्तणं कलुसाधर्म झाणं झियायंति-मत्स्यैषणं कलुषाधम ध्यानं घ्यायंति मछली .पकडनेके बुरे विचारमें तत्पर रहते हैं ॥२७॥ 'अन्वयार्थ--जिस प्रकार ढक, कंक, कुरर, मद्गुक और शिखी મોક્ષમાર્ગ રૂપ ભાવ સમાધિથી રહિત થાય છે. અર્થાત્ મોક્ષમાર્ગથી દૂર અને દૂરતર જ રહે છે. કહેવાનો આશય એ છે કે –બીજે ને, તથા સચિત્ત પાણીને, અને પિતાને માટે બનાવવામાં આવેલ–આવારને ઉપભેગ કરવાવાળા આર્તધ્યાન કરતા થકા ભાવ સમાધિથી અત્યંત દૂર જ રહે છે ૨૬ 'जहा ढकाय कंकाय प्रत्या हाथ'--'जहा-यथा' २ प्रभाये 'ढ काय ककाय कुलला मग्गुका सीहीढकाच कंकाच कुररा मद्गुकाः शिखिन.' ४४, ४, १२२, rawal मने शिमि नाभना तयR पनि विशेष 'मच्छेसणं कलुसाधम झाणं ज्ञियायंति-मत्स्यैणं कलुषाघमं ध्यान ध्यायन्ति' भासा ५४वाना भ२।५ दिया२मा तत्पर २ छ ॥२७॥ અયાર્થ–-જે રીતે ઢંક, કંક, કુરર મણુક અને શિખી નામના
SR No.009305
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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