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________________ १०८ सूत्रकृताङ्गो स्वरूप समाधिमुपदिष्टवन्त स्तीर्थकरादयः । अतो विचारवता यतमानेन पुरुषेण जीवानां विराधनाकारि कर्म परित्यज्य प्रवज्यामादाय ज्ञानादिरूपे मोक्षमार्गे यस्नवता भाव्यमिति ॥६॥ मूलम्-सव्वं जगंतूं समयाणुपेही, पियमप्पियं कस्लइ णो करेज्जा। उहाय दीणो य ए॒णो विसैन्नो, संपूर्यणं वे सिलोयकामी ॥७॥ छाया-सर्व जगत्तु समतानुप्रेक्षी, प्रियमपियं कस्यचिन्न कुर्यात् । उत्थाय दीनश्च पुनर्विपण्णः, संपूजनं चैत्र श्लोककामी ।।७। करने के लिए ज्ञानादिमय समावि का निरूपण किया है। अतएव विचारवान् और यतना परायण पुरुष को जीव विराधना करने वाले कर्म का परित्याग करके, दीक्षा अंगीकार करके, ज्ञानादि रूप मोक्षमार्ग में प्रयत्न शील होना चाहिए ॥६॥ . 'सव्वं जगंतु समयाणुपेही' इत्यादि। शब्दार्थ-सव्वं जगंतू-सर्व जगत्' साधु समस्त जगत्को 'समयाणु. पेही-समतानुप्रेक्षी' समभाव से देखे 'कस्सइ-कस्यचित्' किसी का भी 'पियमप्पिय प्रियम प्रियम्' प्रिय और अप्रिय 'णो करेज्जा-नो कुर्यात्' न करे 'उठाय-उत्थाय' कोई पुरुष प्रव्रज्याका स्वीकार करके 'य-च' और 'दीणो य पुणो विसयो-दीनश्च पुन विषण्णः' कोई पुरुप प्रव्रज्या लेकर परीषह और उपसर्गी की बाधा होने पर दीन हो जाते हैं और જ્ઞાનાદિ ય સમાધિનું નિરૂપણ કરેલ છે તેથી જ વિચારવાનું અને યતના પરાયણ પુરૂ જીવ વિરાધના (હિંસા) કરવાવાળા કર્મને ત્યાગ કરીને દીક્ષાને સ્વીકાર કરીને જ્ઞાનાદિ રૂપ મેક્ષ માર્ગમાં પ્રવૃત્તિ યુક્ત થવું જોઈએ. દા _ 'सव्वं जग तु समयाणुपेही' त्याह Avail-'सव्वं जगंतू-सर्व जगत्' साधु सपूत ने 'समयाणुपेहीसमतानुप्रेक्षी' समसार थी ये 'कस्सइ-कस्यचित्' नु' ५ 'पियमपिय -प्रियमप्रियम्' प्रिय Aथा भनिय ‘णो करेज्जा-नो कुर्यात्' न २ 'उहाय'उत्थाय' ५ ५३५ प्रनयानी स्वी४।२३'च-च' भने, 'दीणो य पुणो विसण्णो दीनच पुनर्विषण्णः' परीष मने साथी पीड1 थाय त्यारे हीन
SR No.009305
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size33 MB
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