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________________ ५६२ . सूत्रकृतागसूत्रे अन्वयार्थ:(महयं) महान्तम् (परिगोवं)परिगोपम् पंकम् इति (जाणिया) ज्ञात्वा (जावि य) यापिच (इहं) इह अस्मिन् लोके (वंदणपूयणा)वंदनपूजना कायादिभिर्वन्दनं वसपात्रादिभिश्च सत्कारः, एतत्सर्वं कर्मोपशमजं फलमिति ज्ञात्वा तत्राभिमानेा न विधेयः, यतः (विउमंता) विद्वान् सदसद्विवेकज्ञः, गर्वः (सुहुमे) सूक्ष्मम् (सल्ले) शल्यम् वर्नते, सूक्ष्मत्वाच्च (दुरुद्धरे) दुरुद्धरं दुःखेनोद्धतुं शक्यते, अतः (संयवं) संस्तवं परिचयम् (पयहिज्जा) परिजयात् परित्यजेदिति ॥ ११॥ टीका _ 'महय, महान्तं सांसारिकजीवानां परिचयरूपं महान्तं परिगोपं' परिगोपं-पंकम्, गोपः पंकः स द्रव्यभावभेदाद द्विविधः तत्र द्रव्यतः कुटुंबादिरूपः भावत जो भी 'इहं-इह' इसलोक में 'वदणपूयणा-वन्दनपूजना वंदन पूजन है उसे भी कर्म के उपशमका फल हैं ऐसा जानकर 'विउमंता-विद्वान् पुरुप गर्व न करे क्योंकि गर्व 'सुहुमे-सूक्ष्मम्' सूक्ष्म 'सल्ले-शल्यम्' शल्य है 'दुरुद्धरे-दुरुद्धरं' उसका उद्धार करना कठिन है अतः 'संथवं-संस्तवम् परिचयको 'पयहिज-परिजह्यात्' त्याग करे ॥११॥ -अन्वयार्थसांसारिक जनों का परिचय महान कीचड है, ऐसा जानकर और यह जो वन्दन पूजा आदि है सो कर्म के उपशम का फल है ऐसा जानकर इसके प्राप्त होने पर अभिमान नहीं करना चाहिए । अभिमान सूक्ष्म शल्य है और सूक्ष्म होने के कारण उसका निकलना बहुत कठिन है, ऐसा समझकर विद्वान् पुरुप परिचय का त्याग करें ॥११॥ -टीकार्थसांसारिक जीवों का परिचय महान् पंक (कीचड) है वह पंक दो प्रकार सभा 'व दणपूयना-वदनपूजना' पहन पूछन छ तेने ५४ मना ५शमनु ३॥ याने 'विउम ता-विद्वान्' भुद्धिमान ५३५ मलिभान न ४२ भ मलिमान 'सुहमेसक्ष्मम्' सूक्ष्म 'सल्ले-शल्यम्' शल्य छ 'दुरुद्धरे-दुरुद्धर' तेने धार ४२वो ४४४ छे सत. सथव-सस्तवम्' पस्यियने। ‘पयहिज-परिजाह्यात्' त्या॥ ४२वो. ॥११॥ -सूत्राथ - સાંસારિક જનેને પરિચય મહાન કીચડ સમાન છે, એવું સમજીને સત અસના વિવેક યુક્ત સાધુએ તેને ત્યાગ કરે જોઈએ. આ જે વન્દન, પૂજન આદિ છે, તે કર્મને ઉપદેશનુ ફળ છે, એવું સમજીને વન્દન, પૂજન આદિ થાય ત્યારે અભિમાન કરવું જોઈએ નહીં અભિમાનસૂમ શલ્ય (કટા) સમાન છે જેમ સૂર્યમ શલ્યને કાઢવાનું ઘણું જ મુશ્કેલ થઈ પડે છે એજ પ્રમાણે અભિમાનને કાઢવાનું કાર્ય પણું દુષ્કર થઈ પડે છે તેથી સાસારિક પરિચયને ત્યાગ કરે એજ વિદ્વાન પુરુષને માટે ઉચિત છે.
SR No.009303
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages701
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size38 MB
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