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________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ (जो ) यः कश्चित् पुरुषः (परं जणं) परं जन=परमन्यं जनम् पुरुषम् (परिभवई). परिभवति = तिरस्करोति स ( संसारे) संसारे चातुर्गतिके संसारे (महं) महत् चिरकालं यावत् (परिवत्तइ) परिवर्तते संसारे परिभ्रमतीत्यर्थः, 'अदु अथवा अतः इत्यर्थः, (इखिणिया उ) इक्षणिका तु= परनिंदा, (पाविया) पापिका = पापोत्पादिकेत्यर्थः, (इति) इति ( संखाय ) संखाय = ज्ञात्वा (मुणी) मुनि: (गो) न (मज्जइ) माद्यति = स्वगुणाहंकारं न करोतीति ॥ २ ॥ કષ્ટ टीका 'जो' यः पुरुषः परंजणं परं जनम् अन्यं पुरुषम् 'परिभवई' परिभवति अन्वयार्थ जो दूसरों का तिरस्कार करता है, वह संसार में चिरकाल तक परिभ्रमण करता है, अतएव परनिन्दा पापजनक है । ऐसा जानकर मुनि अपने गुणों का अहंकार नहीं करता ||२|| शब्दार्थ –'जो --य:' जो पुरुष 'परं जणं--पर जनं' दुसरे पुरुष को 'परिभवई - परिभवति' तिरस्कार करता है 'संसारे संसारे' चतुर्गतिरूप संसार में 'महं-महत्' चिर कालतक 'परिवत्तई - परिवर्तते' भ्रमण करता है 'अदुअथवा ' अगर 'इंखिणिया उ- इक्षणिका तु' परनिंदा 'पाविया - पापिका' पाप जनक होती है ' इति -- इति' इस प्रकार 'संखाय - संख्याय,' जानकर 'मुणीमुनिः' मुनि 'णो-न' 'मज्जइ - माद्यति' मद नहीं करता है अर्थात् अपने गुणों का अहंकार नहीं करता है ||२|| - टीकार्थ जो पुरुष अन्य जन की निन्दा करता है, वह संसार में दीर्घकाल पर्यन्त સૂત્રા જે અન્યના તિરસ્કાર કરે છે, તે આ સસારમાં ચિર કાળ સુધી પરિભ્રમણ કર્યાં કરે છે તેથી. પરિનન્હા પાપજનક છે એવુ સમજીને મુનિ પેાતાના ગુણાના અહંકાર કરતા नथी. ॥ २ ॥ 4 शब्दार्थ –'जो-यः' नेपुरुष 'पर जण - पर जन' मील पुरुषने 'परिभवई - परि भवति' तिरस्ार उरे छे. 'ससारे- ससारे' ते यार जतिवाजा संसारमा 'मह - महत्' लामा समय सुधी लभ्याउरे छे 'अदु-अथवा ' अगर 'इ खिणिया उ- इक्षणिका तु' ५२निहा 'पापिया - पापिका' पाप न होय छे, 'इति - इति' मा अक्षरे 'संखाय' - संख्याय नगीने 'मुणी-मुनि' भुनि 'णो-न' 'मज्जइ-माद्यति' अलिभान उरतो नथी अर्थात् પેાતાના ગુણાના અહાકાર કરતા નથી; પ્રા ટીકાથ જે પુરુષ અન્યની નિન્દા કરે છે, તે સસારમાં દીર્ઘકાળ પ ત પરિભ્રમણ કરતા
SR No.009303
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages701
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size38 MB
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