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समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु.अ.२ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेश ५२५
मातापित्र्यादिकुटुंबस्नेहपाशयंत्रितः संयमात् भ्रष्टः संसारचक्रमेव भ्रमति, तर्हि आत्मार्थिभिः साधुभिः किं कर्त्तव्यमित्युपदिशति शास्त्रकारः 'तम्हा दवि' इत्यादि ।
मूलम्
तम्हा दवि इक्ख पंडिए पावाओ विरए अभिनिब्बुडे । पणये वीर महावीहिं सिद्धिपहं णेयाउयं धुर्व ॥२१॥
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छाया तस्माद्रव्य ईक्षस्त्र पण्डितः पापाद्विरतोऽभिनिवृतः । प्रणता वीरा महावीथीं सिद्धिपथं नेतारं ध्रुवम् ॥२१॥
माता पिता आदि कुटुम्बी जनों के स्नेहके वन्धन में पड़ा हुआ संयमभ्रष्ट पुरुप संसार चक्र में ही भ्रमण करता है, तो आत्मार्थी साधुओंको क्या करना चाहिए? शास्त्रकार इस विषय में उपदेश देते हैं-- 'तम्हा दवि इत्यादि।
शब्दार्थ--तम्हा-तस्मात् , इसलिये (माता पितामें आसक्त होकर पापकर्म करते हैं इसलिये) 'दवि--द्रव्यो' मुक्ति गमन के योग्य अथवा रागद्वेपरहित 'इक्ख--इक्षस्त्र विचारो 'पंडिए--पंडितः' सत् असत् के विवेक से युक्त तथा 'पावाओ--पापात्' पापसे (पाप जनक अनुष्ठानसे) 'विरए--विरतः' निवृत्तहोकर अभिनिव्वुडे 'अभिनिवृतः शान्त हो जाओ कारणकी 'वीरे-धीरः कर्मके विदारण करने में समर्थ पुरुप 'महावीहिं--महावीथीम्' महामार्गको 'पणए-प्रणताः' प्राप्त करते है 'सिद्धिपदं-सिद्धिपथम' जो महामार्ग सिद्धिका मार्ग 'णेयाउयं--नेतारम' मोक्षके पास ले जानेवाला और 'धुंव- ध्रुवम्' निश्चल है ॥२१॥
માતા, પિતા આદિ સ્વજનેના સ્નેહના બન્ધનમા બે ધાયેલે તે સ યમબ્રણ પુરૂષ સ સાર ચક્રમા જ ભ્રમણ કર્યા કરે છે તે આત્માથી સાધુઓએ શું કરવું જોઈએ? આ प्रश्न उत्तर उनी गाथामा सूत्रारे २माये। छ- "तम्हा दवि त्या
शहाथ---'तम्हा-तस्मात् 'तरण (मातामा मासात थाने-तल्लीन छने) पा५४ ४२ छ त भाट) 'दवि द्रव्यो' भुति भन भाटे योग्य अथवा रागद्वेष रहित थन 'इक्ख-रक्षस्व' विद्यारीत 'पंडिए-पंडिन 'सत्य मसत्यना विवे४थी युत तथा पावाओ-पापात् ' पाथी (पा५ । अनुष्ठानथा) 'विरए-घिरत ' निवृत्त थाने । अभिनिचुडे-अभिनिवृत्त ' शान्त यतया ४१२ वीरे-धीर' भनी विहार ४२वामी समर्थ १३५ 'महावीहि-महावीथीम् ' मला माजन 'पणप-प्रणता' प्राप्त ४२ छ सिद्धिपद -सिद्धिपथम्' २ मामा-सिद्धिने माग 'णेयाउयं-नेतारम्' मोक्षना पासे याचा अने'धुव -धृवम् निश्चल छे ॥१॥