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विषय
पृष्ठांङ्क १० सम्यक्त्वमोहनीयका स्वरूप ।
५७३-५७५ ११ मिश्रमोहनीय । १२ मिथ्यात्वमोहनीय ।
५७६-५८४ १३ प्रथम सूत्रका अवतरण और प्रथम सूत्र ।
५८५ १४ सभी तीर्थङ्करोंद्वारा प्रतिपादित सम्यक्त्वका निरूपण । ५८५-५८८ १५ द्वितीय मूत्रका अवतरण और द्वितीय मूत्र ।
५८९ १६ यह सर्वप्राणातिपातविरमणादिरूप धर्म-शुद्ध, नित्य और
शाश्वत है । इस धर्मको भगवान्ने षड्जीवनिकायरूप लोकको दुःख-दावानलके अन्दर जलते हुए देखकर प्ररूपित किया है। भगवान्ने इस धर्मका प्ररूपण उत्थित अनुत्थित आदि सवोंके लिये किया है।
५८९-५९३ १७ तृतीय सूत्रका अवतरण और तृतीय सूत्र ।
५९३ १८ भगवान्का वचन सत्य ही है, भगवान्ने वस्तुका स्वरूप जिस
प्रकार प्रतिपादन किया है वह वस्तु वैसी ही है-इस प्रकारके श्रद्धानलक्षण सम्यक्त्वका प्रतिपादन केवल आर्हतागममें ही कहा गया है। अन्यत्र नहीं !
५९३-५९४ १९ चतुर्थ सूत्रका अवतरण और चतुर्थ सूत्र ।
५९५ २० उस सम्यक्त्वको प्राप्त कर, धर्मको उपदेश-आदि उपायद्वारा जान
कर सम्यक्त्वको प्रशम-संवेगादिद्वारा प्रकाशित करे, सम्यक्त्वका परित्याग न करे।
५९५-५९६ २१ पञ्चम सूत्रका अवतरण और पञ्चम सूत्र ।
५९७ २२ ऐहिक और पारलौकिक इष्ट-अनिष्ट शब्दादि विषयों में वैराग्य रखे।
५९७ २३ छठा मूत्र।
५९८ २४ लोकैपणा न करे।
५९८-५९९ २५ सातवें सूत्रका अवतरण और सातवां मूत्र । २६ जिसको लोकैषणा नहीं है उसको सावध-व्यापारमें प्रवृत्ति कहांसे
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