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________________ २२ अध्य० २. उ. १ यद्वा हस्त्यश्वरथकलत्रमित्रद्विपदचतुष्पदादिरूपः संयोगस्तत्प्रयोजनवान्। यतः संयोगार्थी अतएव कालाकालसमुत्थायी, इति हेतुगर्भ विशेषणम् । संयोगव्यग्रतयैवानवगतकालाकालव्यवस्थ इति यावत् । अतएव अर्थालोभी-अर्थों धनं कुप्यमकुप्यं चेति, तत्र सुवर्णादिभिन्नं रत्नादि कुप्यम् , सुवर्णरजतादिरूपमकुष्यं चेति भेदः । आ समन्तात् सर्वत इति यावत्, लोभो लालसा विद्यते यस्य स आलोभी अर्थस्यालोभी अर्थालोभी, अत्रापि कालाकालसमुत्थायीति विशेषणम् । यस्माद्धनाभिलाषी तस्मात्कालाकालसमुत्थायी, अनितिकालाकालनियमः, यो हि धनं कामयते अथवा मातापितादिक के साथ जो संबंध है। उसी का नाम संयोग है। अथवा-हस्ति, अश्व, रथ, स्त्री, मित्र, द्विपद, चतुष्पदादि रूप परिग्रह के साथ संबंध भी संयोग है। तत्प्रयोजनवान् प्राणी संयोगार्थी कहलाता है । यह संयोगार्थी है इसीलिये कालाकालसमुत्थायी है। कालाकालसमुत्थायी होने में संयोगार्थित्व यह हेतु है। संयोग में व्यग्रता ही कालाकाल की अव्यवस्था का कारण होती है। "अर्थालोभी-सव प्रकार से अर्थ का अभिलाषी जो होता है-वह अर्थालोभी है। कुप्य और अकुप्य के भेद से धन दो प्रकार का बतलाया गया है। रत्नादिक कुप्य है। सुवर्ण-रजतरूप द्रव्य अकुप्य है। अर्थ-आ-लोभी-इस प्रकार इस वाक्य में पदच्छेद करने से यह अर्थ निष्पन्न होता है कि जो आ-सर्व प्रकार से अर्थलोभी है। यहाँ पर भी 'कालाकालसमुत्थायी' इस विशेषण की योजना कर लेनी चाहिये । इससे यह फलितार्थ होता है कि यह धनाभिलाषी है इसीलिये कालाकालसमुत्थायी है, काल और साथै २ सम छ तेनु नाम सयाछ, अथवा स्ति, 24व, २थ, स्त्री, भित्र, द्विपक्ष, ચતુષ્પદાદિ રૂપ પરિગ્રહની સાથે સંબંધ પણ સંગ છે. એવા પ્રજનવાળું પ્રાણી સંગાથી કહેવાય છે. તે સંગાથી છે માટે કાળાકાળસમુત્કારી છે. કાળાકાળસમુસ્થાયી હોવામાં સંગાથવ હેતુ છે, સંગમાં વ્યગ્રતા જ કાળકાળની અવ્યવસ્થાનું २९४ थाय छे. " अर्थालोभी " या प्रारं मन मलिताषी थाय छे. ते मथ:લોભી છે. મુખ્ય અને અધ્યના ભેદથી ધન બે પ્રકારનું બતાવ્યું છે. રત્નાદિક કુખ્ય छे, सुवर्ण-२०४०३५ द्रव्य प्य छे. 'मथ-मा-होली' मा २ मा वाध्यमां પદ છેદ કરવાથી એ અર્થ નિષ્પન્ન થાય છે કે જે આ સર્વ પ્રકારથી અર્થ–મુખ્ય અને અકુષ્યરૂપ દ્રવ્યને લેભી–અભિલાષી–છે તે અર્થલોભી છે. આ ઠેકાણે પણ કાળાકાળમુત્થાયી” આ વિશેષણની યોજના કરવી જોઈએ તેથી એ ફલિતાર્થ થાય છે કે ધનાભિલાષી છે માટે કાળકાળમુત્યાયી છે. કાળ અને અકાળના
SR No.009302
Book TitleAcharanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages780
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size52 MB
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