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आधाराङ्गसूत्रे है तब तक अर्थात् इन्द्रियों के ज्ञान की विद्यमानता में ही हे भव्य प्राणी! तू अपना कल्याण-अर्थात् ज्ञानदर्शनचारित्र-आराधन रूप निज प्रयोजन को सिद्ध करले। यह निश्चित है-वृद्धावस्था आने पर, या किसी भयंकर रोग के होने पर-इन्द्रियों की शक्तियां या स्वयं इन्द्रियां ही क्षीण हो जाती हैं। जिस समय चेचक निकला करती है कई व्यक्तियों की आंखें फूट जाती हैं, कान भी बहिरे हो जाते हैं । लकवा की बीमारी में स्पर्शन इन्द्रिय शून्य हो जाती है, वचन वर्गणा ठीक नहीं निकलती, चलते समय पैर कहीं रखते हैं पड़ते हैं कहीं। कहा भी है
"गात्रं संकुचितं गतिविगलिता भ्रष्टा च दन्तावलिः, दृष्टिनश्यति वर्धते बधिरता बक्त्रं च लालायते । वाक्यं नाद्रियते च बान्धवजनो भार्या न शुश्रूषते,
हा ! कष्टं पुरुषस्य जीर्णवयसः पुत्रोऽप्यमित्रायते” ॥१॥ "दृष्टि घटी पलटी तनकी छवि, बंक भई गति लंक नई है, रूष रही परनी घरनी, अतिरंक भयो परयंक लई है । कांपत नार (नाड) बहै मुख लार, महामति संगति छार गई है,
अंग उपंग पुराने परे, तिसना उर और नवीन भई है" ॥१॥ નથી થયુ ત્યા સુધી અર્થાત ઇન્દ્રિયેના જ્ઞાનની વિદ્યમાનતામાં જ હે ભવ્ય પ્રાણી ! તું પિતાનું કલ્યાણ અર્થાત્ જ્ઞાનદર્શન ચારિત્ર આરાધનરૂપ નિજ પ્રજનને સિદ્ધ કરી લે એ નિશ્ચિત છે વૃદ્ધાવસ્થા આવવાથી અગર કઈ ભયંકર રોગ થવાથી ઈન્દ્રિયની શક્તિઓ અગર સ્વયં ઇન્દ્રિયે જ ક્ષીણ થાય છે. જે વખતે શીતલા નીકળે છે તે વખતે કઈ વ્યક્તિઓની આંખે ફૂટી જાય છે, કાન પણ બહેરા થઈ જાય છે, લકવાની બીમારીમાં સ્પર્શન ઈન્દ્રિય શૂન્ય બની જાય છે, વચન –વાણી પણ ઠીક નીકળતી નથી, ચાલતી વખતે પગ ક્યાંય રાખે છે અને પગ પડે છે ક્યાય કહ્યું પણ છે –
"गात्रं संकुचितं गतिविगलिता भ्रष्टा च दन्तावलि-, ईष्टिर्नश्यति वर्धते बधिरता वां च लालायते । वाक्यं नाद्रियते च बान्धवजनो भार्या न शुश्रूषते, हा ! करें पुरुषस्य जीर्णवयस. पुत्रोऽप्यमित्रायते" ||१|| " दृष्टि घटी पलटी तनकी छवि वंक भई गति लंक नई है, रूप रही परनी घरनी अति रंक भयो परयंक लई है। कांपत नार (नाड) वहै मुख लार महामति संगति छार गई है, अंग उपंग पुराने परे तिसना उर और नवीन भई है" ॥१॥