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________________ णमो सिद्धाणं पद समीक्षात्मक परिशीलना । भाव का उदय होता है। ऐसा होना आत्मा की शुद्धावस्था है, जिसके प्राप्त होने पर समग्र कर्मकालुष्य प्रक्षालित हो जाते हैं। णमोक्कार मंत्र में जो मातृका-पद के अड़सठ अक्षर आए हैं, वे चारों प्रकार की वाणी को अपने में समाविष्ट किए हुए हैं। णमोक्कार मंत्र का उच्चारण, जप, स्तवन वैखरी-वाणी का रूप है। मानसिक जप, चिंतन आदि पश्यन्ती-वाणी का रूप हैं। उच्चारण युक्त जप से पूर्व उपांशु-जप होता है, जिसमें जिहा और ओष्ठ गतिशील रहते हैं, किंतु ध्वनि बाहर सुनाई नहीं देती, अर्थात् केवल ओष्ठ हिलते हुए प्रतीत होते हैं तथा जब इस महामंत्र में समाविष्ट पंच आध्यात्मिक पूज्य, दिव्य-आत्माओं के स्वरूप की अनुभूति करते हैं, तब परा-वाणी तक पहुँचते हैं। यहाँ इतना और ज्ञातव्य है कि णमोक्कार मंत्र का परम साध्य सिद्धत्व है, जो सिद्ध पद के अतिरिक्त चारों पदों का ध्येय है। अत: भावात्मक दृष्टि से वे सभी सिद्धत्व के साथ पूर्वापर संबंध से संपृक्त हैं । वहाँ ध्याता, ध्यान और ध्येय का एकीकरण हो जाता हैं। इस विवेचन के अनुसार णमोक्कार मंत्र वह शब्दात्मक माध्यम है, शब्द ब्रह्म है, जिसकी आराधना द्वारा वैखरी-वाणी से शुरू कर परा-वाणी तक पहुँचते हुए परब्रह्म को प्राप्त किया जा सकता है, किंतु इसके लिये उच्चारण, स्मरण तथा जप के साथ-साथ इसके निगूढ़तम स्वरूप का साक्षात्कार करना आवश्यक है। इससे आत्मा और परमात्मा के अभिन्नानुभव का साक्षात्कार होता है। इस सम्बन्ध में इतना ज्ञातव्य है कि इन चारों में से प्रत्येक वाणी के जप में पृथक्-पृथक् परिणाम होते हैं। वैखरी-वाणी में जप करने का बाह्य परिणाम यह होता है कि उससे उत्तम ध्वनि-तरंगों से शारीरिक व्याधियाँ दूर हो जाती हैं। चित्त पर जमे हुए स्थूल विचार, हलके होते हैं। मध्यमा-वाणी द्वारा जप करने से यथा-प्रवृत्तिकरण निष्पन्न होता है। पश्यन्ती-वाणी द्वारा जप करने से अपूर्वकरण प्राप्त होता है तथा परा-वाणी द्वारा जप करने से अनिवृत्तिकरण उपलब्ध होता है, आत्मदर्शन होता है। यह क्रम आगे बढ़ता-बढ़ता, भावोत्कर्ष प्राप्त करता-करता, साधक को उसके गंतव्य पथ पर आगे बढ़ाता जाता है। परिणामस्वरूप साधक का जीवन सफल हो जाता है । वह भव-भ्रमण का लंघन कर उससे सदा के लिये विमुक्त होकर अपना शाश्वत, शुद्ध स्वरूप अधिगत कर लेता है । णमोक्कार मंत्र : शांति का उदभव प्रत्येक व्यक्ति का सबसे पहले यह कर्तव्य है कि वह परीक्षण, निरीक्षण द्वारा अपने सच्चिदानंदस्वरूप का निश्चय करे। आत्मा के स्वरूप का निश्चय करने पर भी जब तक अनुकरणीय आदर्श १. मंत्राधिराज (भद्रंकरविजयजी), भाग-२, पृष्ठ : ३४८.. 63 SE
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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