SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ DNA ENIRLSure MANRAISE । URNATO IREAM णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन समन्वित करता है। एक पदार्थ जो नित्य है, वह किसी अन्य अपेक्षा से अनित्य भी है। इस प्रकार अपेक्षा-भेद से नित्यत्व और अनित्यत्व- दोनों एक ही पदार्थ में सिद्ध होते हैं, इसीलिये जैन दर्शन न तो एकांत रूप में नित्यवाद को स्वीकार करता है और न वह एकांत रूप में अनित्यवाद को भी स्वीकार करता है। वह परिणामि-नित्यवाद को स्वीकार करता है, जो अनेकांत-दृष्टि से सर्वथा संगत है, सिद्ध है। - HTTERBERIA MARA SA PARATION THEIR N T RAISION HOSITES HIRANAMICRAHAmlase ASE N HOMRANAMANEVAASHMIRIKASHATR A RASHTRAISEMINARESHA N ERINEERIOUSINEARINGINE w H in R SONAKSHATriple-RREETassalamaASHTRIAGRAATRA IYAR ANISAAREERSATIREDMAAYISTRATIMATERS MERARMA णमोक्कार मंत्र : जप-विधि जप करने से पूर्व जप-कर्ता को, अपने आप को, आठ प्रकार से शुद्ध करना आवश्यक है - १. द्रव्य-शुद्धि, २. क्षेत्र-शुद्धि, ३. समय-शुद्धि, ४. आसन-शुद्धि, ५. विनय-शुद्धि, ६. मन-शुद्धि, ७.वचन-शुद्धि, ८. काय-शुद्धि. ये आठ प्रकार की शुद्धियाँ मानी गई हैं। कोई भी पवित्र कार्य सर्वथा बाह्य तथा आंतरिक शुद्धता के साथ करना चाहिये। ऐसा करने से उसकी फलवत्ता असंदिग्ध होती है। साधक के मन में उत्तरोत्तर उत्साह और उद्यम बना रहता है। वह अविश्रांत रूप में जप-साधना में संलग्न रहता है। उन आठ शुद्धियों का विवेचन निम्नांकित है - १. द्रव्य-शुद्धि अपनी पाँचों इंद्रियों को तथा मन को वश में करना, अपनी शक्ति के अनुरूप क्रोध, मान, माया एवं लोष रूप कषायों को छोड़ना, चित्त में मृदुता और दयालुता का भाव जागरित करना 'द्रव्य-शुद्धि है। द्रव्य-शुद्धि का अभिप्राय साधक की आंतरिक शुद्धि से है। जप करने वाले को चाहिये कि जप प्रा:भ करने से पूर्व अपने भीतर के विचारों को हटाने का प्रयास करे। उसके मन में जहाँ तक हो, कामना, मोह, अहंकार तथा प्रवंचना आदि के कुत्सित भाव न रहें । यद्यपि यह आंतरिक-शुद्धि जितना कहते है, उतनी सरल नहीं है। इस शुद्धि को साधने में चिरकाल तक अभ्यास करना अपेक्षित है। अत: जा में संलग्न होने वाला साधक जप से पूर्व अंत: परिष्कार करने का प्रयत्न करे। जप के समय जगरूक रहे कि पूर्वोक्त भाव मन में उत्पन्न न हों। मन इतना चंचल और दुर्बल है कि वह विकृत भवों को आने से सर्वथा रोक पाए, यह संभव नहीं है। यहाँ जो साधक जागरूक रहता है, वह आंतरिक दृष्टि से विकारों को अपने में न आने देने का स्तत प्रयत्न करता रहता है। ऐसा होने से क्रमश: अभ्यास के साथ मन जप में संलग्न होता जाता है। मंगलमय णमोक्कार महामंत्र, एक अनुशीलन, पृष्ठ : ४०-४९. SCARENERATORS 55
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy