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________________ KARNE णमो सिध्दाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन षट्खंडागम की रचना गिरनार पर्वत पर धरसेन नामक आचार्य साधनारत थे। उन्हें पूर्वो का यत्किंचित् ज्ञान था। इसलिये जैन संघ ने भूतबली और पुष्पदंत नामक दो उत्तम प्रतिभाशील साधुओं को उनके पास ज्ञान प्राप्ति हेतु भेजा। आचार्य धरसेन ने उन्हें श्रुताभ्यास कराया। अध्ययन कर दोनों मुनि वापस लौटे। उन्होंने 'षखंडागम' की रचना की, जो छ: खंडों में विभाजित हैं। ये शौरसेनी प्राकृत में रचे गए। इस प्राकृत का भारत के पश्चिमी भाग में प्रचार था। मथुरा के चारों ओर का क्षेत्र, जो आज ब्रजभूमि कहा जाता है, प्राचीन काल में शूरसेन देश कहलाता था। उस प्रदेश से विशेष संबंध होने के कारण इस भाषा का नाम शौरसेनी पड़ा। डॉ. जगदीशचंद्र जैन ने 'प्राकृत साहित्य का इतिहास' नामक पुस्तक में षट्खण्डागम का महत्त्व, उसके छ: खण्ड, उनमें वर्णित विषय तथा उन पर रचित धवला आदि टीकाओं पर विस्तार से प्रकाश डाला है। मथुरा दिगंबर जैनों का मुख्य केंद्र रहा है। जंबूस्वामी से उसका विशेष संबंध माना जाता है। इस क्षेत्र से विशेष संपर्क होने के कारण दिगंबर आचार्यों, विद्वानों और लेखकों ने अपनी रचनाओं में शौरसेनी प्राकृत का प्रयोग किया। श्वेतांबर-परंपरा में जिस प्रकार अर्धमागधी का महत्त्व माना गया, उसी प्रकार दिगंबरों ने शौरसेनी को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। षट्खंडागम : संक्षिप्त परिचय दिगंबर-परंपरा के सर्वमान्य एवं सर्वोत्कृष्ट शास्त्र षट्खंडागम की केवल एक ही ताडपत्रीय प्रति सुरक्षित थी। वह कर्नाटक में स्थित मूडबिद्री नामक दिगंबर जैन तीर्थ के प्रमुख मंदिर में विद्यमान थी। वह ग्रंथ केवल समय-समय पर लोगों को दर्शन हेतु प्राप्त होता था। उसके प्रकाशन की वहाँ के अधिकारी- भट्टारकों ने आज्ञा नहीं दी, फिर किसी प्रकार प्रयत्न करने से उसका प्रकाशन हुआ। ___ षट्खंडागम के रचना काल के आसपास गुणधर नामक आचार्य हुए। उन्होंने 'कषाय पाहुई (कषाय प्राभूत) नामक ग्रंथ की रचना की। यह भी षट्खंडागम के समकक्ष ही माना जाता है। आचार्य गुणधर को विशिष्ट ज्ञानी स्वीकार किया जाता है। नौवीं ईस्वी सदी के दूसरे दशक में आचार्य वीरसेन ने षट्खंडागम पर धवला नामक टीका की रचना की, जो ७२००० श्लोक प्रमाण है। उन्होंने कषाय पाहुड़ पर भी टीका लिखना प्रारंभ किया किंतु २०,००० श्लोक प्रमाण टीका लिखने के बाद उनका स्वर्गवास हो गया। बाकी का कार्य इनके विद्वान् १. प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृष्ठ : २७४-२९०. 38 THANNECTORATENE
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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