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________________ उपसंहार: उपलब्धि : निष्कर्ष मो', .... ससे यह पन हो, करुणा र और लालसा कता वता के होता है, sto of who , किन्तु कल्याणप्रद धर्म का संदेश दिया, जो जन-जन में, व्यक्ति-व्यक्ति में उदात्त और सात्त्विक भावों का औदार्यपूर्ण संचार करता है। किसी भी समाज, जाति, धर्म या राष्ट्रों की मूल इकाई व्यक्ति है। ये सब व्यक्तियों द्वारा संचालित होते हैं। कितने ही उच्च आदर्श हों, किन्तु यदि उनके निर्वाहक, नियामक या अधिनायक की मानसिकता उन आदर्शों के स्तर तक नहीं जाती हो, निम्न हो, दया, ईर्ष्या, लोभ, असहिष्णुता आदि विकारों से ग्रस्त हो तो वहाँ प्रदर्शन में तो आदर्श होंगे, किन्तु क्रियान्वयन में वे परिलक्षित नहीं होंगे। राष्ट्र, समाज और मानवता के लिए उनका सुखद परिणाम आ नहीं सकेगा। इसीलिए भगवान् महावीर ने व्यक्ति की अंतरात्मा के विकारों को ही महान शत्र बतलाया और कहा कि उनके साथ युद्ध करो, अपने आपको विकार-शून्य बनाओ, वैचारिक संकीर्णता को नष्ट करो, सभी को आत्मतुल्य समझो। अपने चिन्तन के आयाम को इतना विस्तीर्ण बनाओ कि कोई परकीय रह ही न पाए अर्थात् व्यक्ति में इतनी विराटता आ जाए। | उन्होंने और भी कहा- धर्म की आराधना का शुभारंभ 'स्व' से होता है। धर्म का अर्थ ही धारण करने योग्य है। मानव को वही धारण करना समुचित है, जिससे आत्मा का, सभी का हित सधे। यही धर्म का सर्वांगीण, सर्वस्पर्शी, सर्वग्राह्य रूप है। इसका किसी से विरोध नहीं है। भविष्य का यही धर्म हो सकता है। यह शंका होती है कि भगवान महावीर जैन धर्म के तीर्थंकर थे, वर्तमान युग में जैन धर्म के उन्नायक थे। क्या भविष्य का धर्म, जैन धर्म होगा ? __ इस पर भी गहराई से, सूक्ष्मता से विचार करें। तत्त्वत: जैन कोई संप्रदाय या मजहब नहीं है। जैसा पूर्व पृष्ठों में यथाप्रसंग विवेचित हुआ है, वह तो एक जीवन-दर्शन है, जिसे जिनों, वीतरागों महापुरुषों, सर्वज्ञों ने उपदिष्ट किया है। वह जाति, वर्ग, वर्ण, संप्रदाय आदि सभी बाह्य भेदों से सर्वथा अस्पृष्ट है। वह एक मात्र आत्मा में सहज गुणों पर समवस्थित है। इसका यह साक्ष्य है कि भगवान् महावीर क्षत्रिय जाति में उत्पन्न थे। उनके प्रमुख शिष्य ग्यारह गणधर वेद-पाठी, यज्ञ-यागादि निष्णात ब्रह्मण-वंश से थे, जिन्होंने उनसे प्रतिबोध पाकर श्रमण-प्रव्रज्या स्वीकार की। अस्पृश्यों तक के लिए जिन्हें चांडाल कहा जाता था, भगवान् महावीर के श्रमण-संघ के- संयम-साधना के द्वार खुले थे। उत्तराध्ययन-सूत्र के बारहवें अध्ययन में हरिकेश नामक मुनि का वर्णन है। उनका श्वपाक पुत्र के रूप में परिचय दिया गया है। कहा गया है । है तो धिकारों की मांग 'जीवन क बन द्योगादि गों और ने आगे मक या माजिक IT और ते हैं। र एवं सक्खं खु दीसई तवोविसेसो, न दीसई जाइविसेस कोई। सोवागपुत्ते हरिएस साहू, जस्सेरिस्सा इड्डि महाणुभागा।। 492
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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