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________________ सिद्धत्वोपलब्धि, ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परिनिर्वाण । द्ध-दर्शन के समान ण और कोटियों FFouch त होती यों और है। वह के बाद यह एक पा लिया। कारण, कर्मों का आरंभ अब तुममें रहा नहीं और उसके न रहने से जन्म-मरण का चक्कर भी छूट गया। समीक्षा तथागत बुद्ध एक संदर सकमार राजपत्र थे। पिता महाराज शद्धोधन द्वारा की गई विपल-व्यवस्था के बीच बड़े सुख से रहते थे, किन्तु जीवन मे रोग, वृद्धावस्था और मृत्यु को देखने के द:खद प्रसंग बनते हैं, जिनसे वे व्याकुल हो उठते हैं, उन दु:खों से सदा के लिए मुक्त होने की भावना के कारण | संसार से विरक्त होकर वे निकल पड़ते हैं। दीर्घकालीन चिंतन, मनन, ध्यान द्वारा वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि समस्त संसार दु:खमय है, प्रत्येक दुःख का कोई न कोई कारण है, इस दु:ख का निरोध किया जा सकता है तथा निरोध करने का मार्ग है। इन चारों को आर्य सत्य कहा जाता है। यही बौद्ध दर्शन के विकास का मूल बीज है। यहाँ से उसका तत्त्व-ज्ञान प्रारंभ होता हैं और अष्टांगिक मार्ग की आराधना द्वारा साधक साधना-पथ पर उत्तरोत्तर आगे बढ़ता हुआ दु:खों का सर्वथा, संपूर्ण रूप में नाश कर देता है। वह ऐसी स्थिति होती हैं, जहाँ दुःख ऐकान्तिक और आत्यन्तिक रूप में उच्छिन्न- निर्मूल हो जाते हैं, उनका सम्र्पूणत: अभाव हो जाता हैं। वह परमशांतिमय अवस्था है। बौद्ध दर्शन की दृष्टि से यह निर्वाण है। शब्दो द्वारा उसका प्रतिपादन निरूपण नहीं किया जा सकता। जैसा पहले उल्लेख हुआ है, हीनयान बौद्ध धर्म का सबसे प्राचीन संप्रदाय है, तदनुसार स्रोतापन्न, सकृदागामि एवं अनागामि के रूप में साधक की तीन भूमिकाएँ हैं, जो निर्वाण का माध्यम ग्रा और भवचक्र कर प्रिय ख का, ... मुक्ति । इस हीनयान के पश्चात् बौद्ध धर्म का महायान के रूप में विकास हुआ। महायानी आचार्यों ने संस्कृत में अनेक ग्रन्थों की रचना की। महायान में दु:खाभाव के साथ-साथ सुख को भी जोड़ दिया गया। इसी अध्याय में महाराज मिलिंद और आचार्य नागसेन आदि के प्रसंगों में यह विषय चर्चित हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि निर्वाण में केवल दु:खाभाव मात्र से उन्हें परितोष नहीं हुआ हो, क्योंकि यह तो मात्र निषेध (Negative) पक्ष है। तत्त्व के सर्वांगीण विवेचन में विधि (Positive)) पक्ष को व्याख्यात करना भी अपेक्षित है, क्योंकि दुःख का अभाव होने के पश्चात् आगे क्या होता है, यह प्रश्न उठता है। अत: ऐसा प्रतीत होता है कि इसके समाधान को ढूंढने का महायानी आचार्यों तथा विद्वानों ने जो प्रयास किया, शायद उसी की फल-निष्पत्ति सुख के रूप में प्रस्फुटित हुई हो। जैसा पूर्व पृष्ठों में यथाप्रसंग विवेचन हुआ है, वेदान्त दर्शन और जैन दर्शन मोक्षावस्था को नेर्वाण १. धम्मपद, पद-१३४. 466 साह
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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