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________________ णमो सिद्धाण पदा: समीक्षात्मक अनशीलन जो पुरुष अपने सहज जन्म रहित, अचिंत्य-स्वरूप का दर्शन कर लेता है- साक्षात्कार कर लेता है तो फिर कभी भी दोषों से लिप्त नहीं होता। आत्म-द्रष्टापुरुष नित्य, नैमित्तिक आदि कोई भी कर्म न करे तो भी वह बद्ध नहीं होता, क्योंकि वह संयमी और तपस्वी होता है। । अत एव एक साधक मन में यह भावना करता है- "मैं निरामय- दोष-रहित, निष्प्रतिम- प्रतिमा या उपमा-रहित, निराकृति- आकार-रहित, निराश्रय- आश्रय-रहित, शरीर-रहित, इच्छा-रहित, निर्द्वन्द्व- राग-द्वेष आदि द्वन्द्व-रहित, मोह-वर्जित, अलुप्त, अविनष्ट, शक्तिशाली, आत्मरूप परमेश्वर की शरण ग्रहण करता हूँ।" ____ सांख्य दर्शन में समस्त दुःखों के नाश को मोक्ष कहा है। वहाँ आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक तीन प्रकार के दु:खों का वर्णन किया गया है। यद्यपि संसार में इनको मिटाने के उपाय दृष्टिगोचर होते हैं, किंतु उनसे दुखों का ऐकांतिक और आत्यन्तिक विनाश नहीं होता। स्वर्ग प्राप्त होने पर भी वे दुःख सर्वथा नहीं मिटते, क्योंकि स्वर्ग भी शाश्वत नहीं है। आयुष्य समाप्त होने पर देवों को वापस मनुष्य-लोक में लौटना होता है। इसके अतिरिक्त देवों में भी छोटे-बड़े का, ऊँच-नीच का भेद होता है। देवत्व प्राप्ति के कारणभूत यज्ञ आदि में हिंसा होती है। इसलिए वे विशुद्ध नहीं कहे जा सकते। वहाँ बतलाया गया है कि प्रकृति, उससे उत्पन्न होने वाले महत्- बुद्धि, अहंकार, पाँच तन्मात्राएं, | ग्यारह इंद्रियाँ, पाँच महाभूत एवं पुरुष- आत्मा इन पच्चीस तत्वों के सम्यक् ज्ञान से मोक्ष होता है। इस संबंध में निम्नांकित श्लोक बहुत प्रसिद्ध है पंचविंशति तत्त्वज्ञो, यत्र कुत्राश्रमे वसेत् । शिखी मुण्डी जटी वापि, मुच्यते नात्र संशयः ।। अर्थात् जो पच्चीस तत्त्वों को जान लेता है, वह चाहे ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं सन्यास चारों आश्रमों में से किसी भी आश्रम में रहे, चाहे वह जटा रखें, मस्तक को मुंडाए रखे या मस्तक पर शिखा रखे, वह निश्चित रूप में मुक्त हो जाता है। यहाँ कहने का अभिप्राय यह है कि मोक्ष बाह्य परिवेश से नहीं सधता। वह तो तत्त्वों के यथार्थ-ज्ञान से होता है। २. सांख्याकारिका, कारिका--१, २. १. अवधूत-गीता, श्लोक-२५, ३१, पृष्ठ : ३७, ३९. ३. पातंजल योग, प्रदीप-पृष्ठ : १२३. 457 SNE HER SS AAREE SHARA JAR ---
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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