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सिद्धत्वोपलब्धि ब्रह्मसाक्षात्कार एवं परिनिर्वाण
ो तुम्हें न रूप
पुनकर
कैसे
'रूपी
मोक्ष न योग से, न सांख्य से, न कर्म से और न विद्या से ही सिद्ध हो सकता है। वह तो ब्रह्म | एवं आत्मा की एकता के बोध से ही होता है और किसी प्रकार से नहीं होता।
जैसे वीणा का रूप-सौंदर्य तंत्री के सौष्ठव वादन से ही लोगों को रंजित करता है, उनके मनोरंजन का हेतु होता है। उससे कोई साम्राज्य की प्राप्ति नहीं होती। उसी प्रकार विद्वानों की वाग्वैखरी-वाणी की कुशलता, शब्दझरी- धारा-प्रवाह या भाषण-प्रवणता, शास्त्रों के विवेचन का नैपुण्य और वैदष्य, भोग का- लोगों की श्रोत्रंद्रिय को सुख देने का ही कारण हो सकता है, मोक्ष का नहीं।
यदि परम तत्त्व को नहीं जाना तो शास्त्रों का अध्ययन निष्फल- निष्प्रयोज्य है और यदि परम तत्त्व को जान लिया तो शास्त्राध्ययन निष्फल है। ___ शब्दों का जाल एक बहुत बड़े जंगल के समान है, जो चित्त को भ्रांत करता है, भटकाता है, इसलिए प्रयत्न पूर्वक आत्मा के परमतत्व को ही जानना चाहिए। अज्ञानरूपी सर्प द्वारा दष्ट- डसे हुए व्यक्ति के लिए ब्रह्मज्ञान रूपी औषधि के बिना वेद, शास्त्र, मंत्र एवं औषधियों से कोई लाभ नहीं होता। अपरोक्षानुभूति से मुक्ति
औषधि-पान के बिना केवल औषधि शब्द के उच्चारण मात्र से रोग नष्ट नहीं होता। इसी प्रकार अपरोक्षानुभूति के बिना केवल ब्रह्म शब्द के उच्चारण मात्र से मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। दृश्यप्रपंच- जगत् में दिखाई देने वाले बहुत प्रकार के कार्य-कलापों का विलय हुए बिना, उनमें आसक्ति मिटे बिना एवं आत्मतत्त्व को जाने बिना, केवल बाह्य शब्दों द्वारा, केवल उच्चारण करते रहने से मनुष्य को मुक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है?
शत्रुओं का संहार किए बिना, समस्त भूमंडल की श्री लक्ष्मी को प्राप्त किए बिना, 'मैं राजा हूँ', ऐसा कहने मात्र से कोई राजा नहीं हो सकता। पृथ्वी में गुप्त धन को प्राप्त करने हेतु जैसे पहले किसी आप्त- विश्वास-योग्य पुरुष के कथन की और पृथ्वी के खनन की, भू पर स्थापित सेना आदि के उत्कर्षण की- वहाँ से हटाने की और फिर प्राप्त धन को स्वीकार करने की आवश्यकता होती है । केवल धन विषयक कोरी बातों से वह धन हस्तगत नहीं हो सकता। उसी प्रकार माया-प्रपंच से रहित विशुद्ध आत्म-तत्त्व भी ब्रह्मवेत्ता गुरु के उपदेश तथा तदनुसार उस पर मनन, ध्यान आदि से ही प्राप्त होता है। दूषित- निरर्थक वृत्तियों या बातों द्वारा वह प्राप्त नहीं होता।
अत: जिस प्रकार रोग की निवृत्ति के लिए ज्ञानी जनों के लिए प्रयत्न किया जाता है, उसी प्रकार भव-बंधन की मुक्ति के लिए भी तुम्हें प्रयत्न करना चाहिए।
पर के
पासा
रोगी
प्राप्त
अपना
द्वारा
रिक्त
१. विवेक चूड़ामणि, श्लोक-५२-६३.
२. विवेक चूड़ामणि, श्लोक-६४-६८.
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