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जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना
प्रकृति से ही
उसी प्रकार 'कुलयोगी' वह होता है, जो अपनी पावन, उत्तम, श्रेष्ठ योग-साधना द्वारा योगियों का गौरव स्थापित करता हुआ, अनुकरणीय तथा आदर्श जीवन की महत्ता प्रस्तुत करता है। ___ कुलयोगी शब्द आनुवांशिकता के साथ जुड़ा हुआ नहीं है, क्योंकि योगियों का कोई वैसा कुल नहीं है. जिसमें पिता योगी हो, पुत्र भी योगी हो और पौत्र भी योगी हो । 'कुलयोगी' शब्द साधनापरायण एवं योगनिष्ठ पुरुषों की परंपरा से सम्बद्ध है। ३. प्रवृत्तचक्र-योगी
एक कुंभकार घट का निर्माण करते समय चक्र के किसी एक भाग पर दंड सटाकर उसे घूमा देता है। सारा चक्र स्वयं घूमने लगता है। उसी प्रकार जिनका योग साधनामूलक चक्र उनके किसी अंग का संस्पर्श कर लेने या संप्रेरित कर लेने पर अपने आप प्रवृत्त हो जाता है, वे प्रवृत्तचक्र-योगी कहे जाते
रखते। गुरु, मन में बड़ा होते हैं। वे
हैं।
ही गोत्रयोगी तथा सामग्री - ही साधना योग्यता के
अपनी योग में के कारण होती है। वे
प्रवृत्तचक्र-योगी इच्छा-यम एवं प्रवृत्ति-यम, इन दो को सिद्ध कर लेते हैं। स्थिर-यम एवं सिद्धि-यम- इन दो के सिद्ध करने की तीव्र उत्कंठा लिए हुए होते हैं। उस दिशा में अत्यंत प्रयत्नशील रहते हैं। वे शुश्रूषा आदि गुणों से युक्त होते हैं।' विमर्श
यहाँ यम के भेदों की चर्चा आई है। यम अष्टांग-योग का पहला अंग है। इस संबंध में यथाप्रसंग अपेक्षित विवेचन किया जा चुका है। यम, संयम के अर्थ में है, जो अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह इन पाँच भेदों में विभक्त है।
साधना के दो अंग है, ज्ञान और क्रिया। ज्ञान से तत्त्व का बोध होता है। क्रिया, ज्ञान को अभ्यास में परिणत करती है। जब अभ्यास करना होता है तो किसी भी तत्त्व को विशद रूप में स्वायत्त क आवश्यक होता है। यही कारण है कि यमों का भी चार रूपों में विवेचन हुआ है।
अहिंसा आदि की व्याख्या करना उतना कठिन नहीं है, जितना उनको जीवन में स्वीकार करना है। अत एव प्रत्येक यम की चार कोटियों की कल्पना की गई है। सबसे पहले योगाभ्यास में पुरुष के मन में यह इच्छा जागरित होती है कि मैं यमों का पालन करूँ, इस प्रकार की मानसिकता को 'इच्छा-यम' कहा जाता है।
जब इच्छा मन में अनवरत व्याप्त रहती है तो वह प्रवृत्ति के रूप में परिणत होती है। साधक
क है। जैसे उसी प्रकार , जो अपने करती है। बनाता है।
१. योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक-२१२.
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