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जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना
साधना के क्षेत्र में योग का स्थान
भारतीय दर्शनों में जीवन के अंतिम लक्ष्य के रूप में दो प्रकार की चिंतन- धाराएँ प्रचलित हैं । एक के अनुसार दुःखों से छूटना ही परम लक्ष्य है । वैसा होने पर कुछ भी अवशिष्ट नहीं रह जाता । दूसरी विचारधारा के अनुसार दुःख निवृत्ति के साथ-साथ परम आनंद या शाश्वत सुख की प्राप्ति का भी विधान है ।
बौद्ध दर्शन प्रायश: पहली विचार धारा में आता है, जहाँ दुःखों का मिट जाना ही निर्वाण है। वहाँ उदाहरण देकर बताया है कि जैसे दीपक बुझ जाता है, वैसे सभी प्रकार से जब दुःख शांत हो जाते हैं, निर्वाण की स्थिति अधिगत हो जाती है। यही शून्यत्व है। शब्दों द्वारा उसके स्वरूप का वर्णन नहीं किया जा सकता, वह अव्यक्तव्य है ।
सांख्य दर्शन का लक्ष्य भी आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक - इन तीन प्रकार के दुःखों से छूटना है। वेदांत दर्शन तथा जैन दर्शन दुःख-मुक्ति के साथ-साथ परमानंद या शाश्वत सुख को | स्वीकार करते हैं । दुःखों का छूटना तो केवल निषेध पक्ष है । परमानंद की प्राप्ति विधि- पक्ष है । दोनों दृष्टियों से जहाँ सफलता होती है, वहाँ उस दर्शन की परिपूर्णता परिसंपन्नता कही जाती है।
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जैन दर्शन के अनुसार जीव अनादि काल से कर्मों से बंधा हुआ है। उसका अभिप्राय यह है कि उसकी स्वाभाविक शक्तियाँ आवृत्त है उनमें ज्ञान, दर्शन, पराक्रम, आनंद मुख्य हैं। जब तक वे 1 आवरण हटते नहीं, मिटते नहीं तब तक जीव संसार में भटकता है। जब वह संवर द्वारा, आस्रवनिरोध और तप द्वारा संचित कर्मों का निर्जरण या नाश कर देता है, तब उसका आवृत स्वभाव | उद्घाटित या उद्भासित होता है। यह संबर और निर्जरा का मार्ग ही जैन साधना का मूल
है।
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जैन दर्शन में योग शब्द प्राचीन काल से ही प्रवृत्ति के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। यह आसव के भेदों में से एक है। बंधन का हेतु है । कर्मों से मुक्त होने के लिए योग से भी छूटना आवश्यक | है । इसलिए विकास की अंतिम दशा अयोगावस्था कहलाती है। जैन दृष्टि से योग शब्द की यह एक व्याख्या है ।
योग शब्द का एक दूसरा बहुत प्रसिद्ध अर्थ है, जो आत्म साधना का सूचक है। महर्षि पतंजलि
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