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सिद्धत्व-पथ : गुणस्थानमूलक सोपान-क्रम
विचार के ने की जरा
क्षिप्त, मूढ़ और विक्षिप्त को योग भूमियों में लिए जाने के पीछे संभवत: यह विचार रहा हो कि अस्थिरता और विषय-मूढ़ता के साथ-साथ क्षिप्त और मूढ़ चित्त में कुछ न कुछ बहुत हलकी ही सही, अव्यक्त, अस्फुट, स्थिरता और अमूढ़ता बीज-रूप में विद्यमान रहती है। | विक्षिप्त में तो स्थिरता और अस्थिरता का मिश्रण है ही। जैन दर्शन के अनुसार मिथ्यात्वी में जैसे कछ न कुछ क्षयोपशम विद्यमान रहता है, सद्वीर्य और सत्पराक्रम की हलकी सी लौ छिपी रहती है,
छ अंशों में वैसी ही स्थिति अपेक्षा-दष्टि में क्षिप्त और मूढ़ की परिकल्पित की जा सकती है।
‘मिथ्यात्व
पति है।
में व्यक्ति
अनुसार वेिश है।
नता तथा
जब तक जाती है,
' असंख्य
अविद्या और विवेकख्याति
योगदर्शन में मिथ्यात्व के स्थान पर अविद्या का व्यवहार हुआ है। अविद्या ही सब दु:खों का हेतु है। उसका नाश विवेकख्याति से होता है।
योग-सूत्र के भाष्यकार महर्षि व्यास ने उसके संबंध में लिखा हैं
बुद्धि तथा पुरुष की अन्यता- भेद का प्रत्यय या प्रतीति ही विवेकख्याति है। बुद्धि भिन्न है तथा पुरुष या आत्मा भिन्न है, ऐसा बोध होना भेद-प्रतीति है। जब तक मिथ्याज्ञान अनिवृत्त रहता है, अर्थात् हटता नहीं, तब तक विवेकख्याति नहीं होती। जब मिथ्या ज्ञान दग्ध-बीजता तथा प्रसव-शून्यता प्राप्त कर लेता है, तब बुद्धि, जिसका क्लेशमल अपगत हो गया है, सम्यक् निर्मलता प्राप्त कर लेती है। वशीकार संज्ञक वैराग्य की परावस्था में विद्यमान योगी का विवेक-प्रत्यय-प्रवाह निर्मल हो जाता है। वह अविप्लवा विवेकख्याति है। उसमें विप्लव-विघ्न नहीं होता। यह दुःख मिटने का उपाय है, मोक्ष का मार्ग है।
संपूर्णत:
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न केवल
विकास
विशेष
उनका कारण -कोटि वेक्षिप्त ' इतनी
जैन दर्शन में मिथ्यात्व के ध्वस्त होने पर साधक सम्यक्त्व का वरण करता है। वह दुःखोन्मुक्ति के पथ पर आरूढ़ हो जाता है। यद्यपि उसे एक लम्बी यात्रा तय करनी होती है, किंतु वह पथ वही अपनाता है, जो उसे उसके अभीप्सित स्थान या लक्ष्य पर ले जाने वाला हो, जहाँ पहुँचने पर न क्लेश रहता है, न परतंत्रता। वह चिन्मयता, स्ववशता, स्वतंत्रता का अखंड साम्राज्य पा लेता है। लगभग यही स्थिति कैवल्य-प्राप्त योगी की होती है, जिसका अंतिम लक्ष्य मोक्ष या सिद्धत्व है।
जाता
सप्तविध प्रज्ञाएं
विवेकख्याति द्वारा निवृत्ति क्रम या आत्मोत्कर्ष-क्रम किस प्रकार आगे बढ़ता है ? इस विषय में १. योग सूत्र, साधनपाद, सूत्र-२६ (भाष्य).
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NEHATRA