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रूपी पादप
भी उत्तम, क्ष
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लेना है । नया मोड़ हो जाता अंतः स्थित
ारणा का
सुखों
IT उत्पन्न
जिन्होंने लिया है, सुख में,
वन्मुक्त
हुँचे हुए है। जो
तेशील
चार
てき
सिद्ध
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सिद्धत्व-पय: गुणरधानमुलक सोपान क्रम
साधु और सर्वज्ञ प्रज्ञप्त धर्म, ये चार उत्तम है। लोक में अरिहंत, सिद्ध, साधु और सर्वज्ञ प्रज्ञप्त धर्म, ये चार शरण हैं ।
सत्योन्मुख व्यक्ति द्वारा सम्यक्त्व स्वीकार करने की शब्दावली इस प्रकार है- "अरिहंत मेरे देव| उपास्य हैं। सुसाधु| सुसाधु- संयमी सत्पुरुष मेरे गुरु हैं। वीतराग प्रभु द्वारा प्रज्ञप्त प्ररूपित तत्त्व मेरे द्वारा गृहीत है, यथार्थ है। मैंने इस प्रकार सम्यक्त्व को ग्रहण किया है।" इसे और दृढ़ करते हुए वह कहता है “मुझको परमात्म का, जीवादि पदार्थों का परिचय हो । तात्त्विक सिद्धांतों को जानने वाले साधुओं की सन्निधि प्राप्त हो, सम्यक्त्व से भ्रष्ट मिय्यात्वी जनों की संगति कदापि न हो। सम्यक्त्व में मेरी श्रद्धा अविचल हो।"
आंतरिक शुद्धि के लिए साधक आत्म-पर्यालोचन करता हुआ कहता है- "यदि मैंने वीतराग प्रभु के वचन में शंका की हो, जो धर्म असर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित है, उसकी आकांक्षा की हो, सत्य-धर्म के फल के संबंध में विचिकित्सा - संदेह किया हो, परमतवादियों की प्रशंसा की हो, उनका संस्तव, परिचय या संपर्क किया हो तो मैं आलोचना करता हूँ मेरे द्वारा किए गए ये असत् कृत्य निष्फल हों। " सम्यक्त्व के ये पांच अतिचार हैं, जो ज्ञातव्य जानने योग्य हैं, अनाचरित्त्व- आचरण करने योग्य नहीं है।
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गुरु का वैशिष्ट्य
सम्यक्त्व स्वीकार करते समय सुसाधुओं को गुरु रूप में अंगीकार किया जाता है। उनके मुख्य गुणों की विशेषता बतलाते हुए कहा गया है, जो पाँच इंद्रियों का संचरण करते हैं, उनकी विषय-वासना संबंधी चंचलता को रोकते हैं, नव प्रकार की गुप्ति या बाड़ों से युक्त ब्रह्मचर्य का परिपालन करते हैं, क्रोधादि चार कषायों से जो विमुक्त हैं, इस प्रकार जो अठारह गुणों से संयुक्त है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह- इन पाँच महाव्रतों से युक्त हैं, पाँच आचारों के परिपालन में समर्थ हैं, पाँच समिति और तीन गुप्ति के धारक हैं। इस प्रकार छत्तीस गुणों से युक्त उत्तम साधु (आचार्य) मेरे गुरु हैं।
मिथ्यात्व के दस भंग
विशेष स्पष्टीकरण की दृष्टि से मिष्यात्व और सम्यक्त्व के दस-दस भंग किए जाते हैं।
१. अधर्म को धर्म मानना,
२. धर्म को अधर्म मानना,
१. आवश्यक सूत्र, प्रथम अध्ययन, पृष्ठ ८-१०.
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२. आवश्यक सूत्र, अध्ययन-४, पृष्ठ ८८-८९