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________________ Hal णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन सिद्धों की आत्मा में वृद्धि और ह्रास नही होता। वे सदैव एक रूप में अवस्थित हैं । उनके वैभवऐश्वर्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कल्पना और सीमा से सिद्ध अतीत हैं, वे निष्कल- देह रहित हैं। इंद्रियातीत हैं। मानसिक विकल्पों से रहित हैं। निरंजन हैं- अंजन या कर्मों का उनके बंध नहीं है। वे अनंतवीर्य- अनंत आत्मपराक्रम, आत्मशक्ति के धनी हैं। उनका आनंद नित्य है, कभी नष्ट नहीं होता, उनके सुख का कभी विच्छेद नहीं होता। वह अविच्छिन्न और अखंड है। वे परम-पद में विराजित हैं, परम ज्योति, परम ज्ञान स्वरूप हैं, अपने आप में परिपूर्ण हैं, शाश्वत हैं। वे संसारसागर को पार कर चुके हैं, जो करना था, वह कर चुके हैं। उनकी स्थिति अचल- अत्यंत स्थिर प्रदेशक्रिया से रहित है। वे संतत्व हैं- सर्वथा परितुष्ट हैं। त्रैलोक्य के सर्वोच्च स्थान में संस्थित हैं। संसार में ऐसी कोई भी वस्तु या व्यक्ति नहीं है, जिससे उनके सुख को उपमित किया जा सके- जिनकी उनको उपमा दी जा सके। उनका सुख अनुपम है। यदि चल या जंगम तथा स्थिर-स्थावर पदार्थों से परिपूर्ण तीनों लोक में उपमान की खोज की जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि सिद्ध स्वयं ही अपने उपमान और स्वयं ही उपमेय हैं, क्योंकि उपमेय और उपमान का संबंध तो तभी घटित होता है, जब दोनों में सदृशता हो। सिद्ध भगवान् के सदृश तीनों लोकों में न कोई गतिशील पदार्थ है और न स्थितिशील ही है। इस जड़-चेतनात्मक जगत् में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है, जो सिद्ध भगवान् के सदृश हो। काव्य-शास्त्र में एक ऐसा अलंकार माना गया है, जिसमें वही उपमेय और वही उपमान होता है। उसे 'अनन्वय अलंकार' कहा गया है- जैसे मुख, मुख के समान है। यह बात सिद्ध भगवान् पर लागू होती है। सिद्ध भगवान् तो सिद्ध भगवान् जैसे ही हैं। उनको किसी से भी उपमित नहीं किया जा सकता, क्योंकि सिद्धेतर कोई भी ऐसा पदार्थ जगत् में नहीं है, जो उनके समान हो। तीनों लोकों में सिद्ध भगवान् के अनंत गुणों के अनंतवें अंश जैसा भी कोई पदार्थ नहीं है। इसलिए उनकी समानता कोई भी नहीं कर सकता। जैसे आकाश का, काल का अंत ज्ञात नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार सिद्ध भगवान् के स्वाभाविक गुणों का कोई अंत नहीं जान सकता। गगन, मेघ, भानु, अहींद्र, चंद्र, पर्वतों का इंद्र- मेरु, पृथ्वी, अग्नि, पवन, सागर तथा कल्पवृक्ष के abo १. (क) आचार्य हेमचन्द्र-काव्यानुशासनञ्च समीक्षात्मकमनुशीलनम्, पृष्ठ : १७४. (ख) काव्यप्रकाश, उल्लास-१०, सूत्र-१३४. 287 RRH SHAR
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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