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चतुर्थ अध्याय उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण
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२३६ )/ग्रंथ-रचना २३६ | तत्त्वार्थ-सूत्र में सिद्ध की व्याख्या
सिद्धत्वोन्मुख ऊर्ध्वगमन : हेतु २४० सिद्धों की विशेषताएं
क्षेत्र २४२ ।
| काल २४४ गति २४५ ।।
| लिंग
.90
२४१
तीर्थ
०
०
णमोक्कार-विवेचन णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं सिद्ध-पद का विश्लेषण प्राकृत रचनाओं में सिद्ध-पद सिद्ध शब्द की व्युत्पत्ति आवश्यक-नियुक्ति में सिद्ध-पद नाम-निक्षेप स्थापना-निक्षेप द्रव्य-निक्षेप, भाव-निक्षेप तप-सिद्ध और कर्म-क्षय-सिद्ध के लक्षण सिद्धत्व-आराधना के संदर्भ में रत्नत्रय का निरूपण सिद्धत्व-प्राप्ति का विश्लेषण रत्नत्रयरूप आत्मभाव : सिद्धत्व की भूमिका सिद्धों के गुण श्री सिद्धिचंद्रगणीकृत व्याख्या श्री हर्षकीर्ति सूरि द्वारा सिद्ध-पद का निरूपण संस्कृत में जैन मनीषियों द्वारा
२६१ २६१
| चारित्र २४७ | प्रत्येकबुद्ध-बोधित
ज्ञान २४७ || अवगाहना
अंतर संख्या
अल्प-बहुत्व २५० || तत्त्वार्थ-राजवार्तिक में मोक्ष-मार्ग २५२ मुक्त पुरुषों का अनाकार है :
अभाव नहीं
सिद्धों का अव्यय, अविनश्वर सुख २५४ प्रशमरति प्रकरण में
सिद्ध-पद का निरूपण
रत्नत्रय द्वारा मोक्ष की सिद्धि २५५ सिद्धत्व-प्राप्ति का क्रम
सिद्ध-पद का विश्लेषण
२६३ २६४
२५२
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२६८