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________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन । HARINEMAHANA एक समय की बात है। भगवान् महावीर राजगह नगर में विराजित थे, तब गौतम ने उनसे पूछा- भगवन् ! जीव, जीव भाव से, जीवत्व की दृष्टि से प्रथम है या अप्रथम है? भगवान- गौतम ! जीव, जीवभाव की अपेक्षा से प्रथम नहीं है, वह अप्रथम है। नैरयिकबीर से लेकर वैमानिक जीवों तक यही स्थिति है। गौतम ने पुन: प्रश्न किया- जीव सिद्धभाव से सिद्धत्व की अपेक्षा से प्रथम है या अप्रथम है ? भगवान ने कहा- गौतम ! सिद्ध-जीव सिद्धभाव की अपेक्षा से प्रथम हैं, अप्रथम नहीं है। गौतम ने पुन: प्रश्न किया- क्या सभी जीव सिद्धत्व की अपेक्षा से प्रथम हैं या अप्रथम ? भगवान्- गौतम ! सभी जीव सिद्धत्व की अपेक्षा से प्रथम हैं। वे अप्रथम नहीं हैं। समीक्षा यहाँ प्रथमत्व और अप्रथमत्व को लेकर जीव और सिद्धत्व के संबंध में चर्चा हुई है। प्रथम वह होता है, जो नए रूप में अस्तित्व प्राप्त करता है। अप्रथम वह होता है, जो नए रूप में अस्तित्व प्राप्त नहीं करता, जो पहले से होता है, अनादि काल से होता है। जीव का अस्तित्त्व इसी प्रकार का है। __ जीव सदा से विद्यमान है। वह कभी नए रूप में अस्तित्व प्राप्त नहीं करता। वह अनादि है। इसलिए उसको इस चर्चा में अप्रथम कहा गया है किन्तु सिद्धत्व के साथ यह बात लागू नहीं होती। क्योंकि कर्म-बद्ध जीव जब कर्मों से मुक्त होता है तब सिद्ध बनता है। इसलिए सिद्धत्व पाने की आदि | है। वह जीव पहले-पहले सिद्धत्व पाता है, इसलिए सिद्धत्व की दृष्टि से वह प्रथम है। जीव के जीवत्व की तरह सिद्ध का सिद्धत्व अनादिकालीन नहीं है। जीव उसे संयम-साधना से साधित करता है, प्राप्त करता है । वह सादि या आदि सहित है। इसलिये वह अप्रथम नहीं, प्रत्युत प्रथम है। एक प्रसंग में केवलज्ञानी, अयोगी जीव मनुष्य तथा सिद्ध के प्रथमत्व-अप्रथमत्व के संबंध में कहा गया कि वे एकत्व और बहुत्व हैं। एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा से प्रथम हैं, अप्रथम नहीं हैं। यहाँ सिद्धों के प्रथमत्व, अप्रथमत्व की जो चर्चा की गई है, उसका अभिप्राय यह है कि चाहे संख्या में सिद्धावस्था प्राप्त जीव एक हों या बहुत से हों, उन्होंने जो सिद्धत्व पाया है, वह पहले-पहल पाया है। इसलिये उनमें सिद्धत्व की दृष्टि से प्रथमत्व है। १. व्याख्याप्रज्ञप्ति-सूत्र, शतक-१८, उद्देशक-१, सूत्र-२-८, पृष्ठ : ६४७-६५०. २. व्याख्याप्रज्ञप्ति-सूत्र, भाग-३, शतक-१८, उद्देशक-१, सूत्र-५३, पृष्ठ : ६५८. 195
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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