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________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन रूप से ध्यान करने की कई पद्धतियाँ प्रचलित हैं । जिनमें विपश्यना, प्रेक्षा आदि नाम प्रचलित हैं । प्राणायाम का हठयोग में बड़े विस्तार से वर्णन किया गया है। श्वासोच्छ्वास की क्रिया को संतुलित रखने के लिये रेचक, पूरक और कुंभक का अभ्यास आवश्यक है। जैन मनीषियों ने प्राणायाम का आध्यात्मिक दृष्टि से बड़ा सूक्ष्म और सुंदर विवेचन किया है। उनके अनुसार रेचन का अर्थ - मन में व्याप्त अशुभ या पापमय भावों को बाहर निकालना है। पूरक का अभिप्राय शुभ भावों को अपने भीतर भरना है कुंभक का अर्थ- शुभ भावों को अपने अंत:करण में टिकाए रखना है । बारबार ऐसा अभ्यास करने से मन:- स्थित पापपूर्ण भाव नष्ट होते हैं पुण्यात्मक भाव संचित या संग्रहित होते हैं। उनको जब अंतःकरण में स्थिर कर लिया जाता है, तब मानव धर्मिक अनुष्ठान में विशेष रूप से अभिरूचिशील बन जाता है। उसका जीवन आत्मोत्कर्ष की भूमिका पर क्रमश: अग्रसर होता जाता है। इस प्रकार यह भावात्मक प्राणायाम एक साधक के लिए, उसकी आध्यात्मिक यात्रा में स्फूर्तिप्रद सिद्ध होता है । प्रत्याहार यह योग का पाँचवाँ अंग है । इसका तात्पर्य इन्द्रियों को बाह्य वृत्तियों की ओर से, उनसे संबद्ध विषयों से हटाकर, मन में विलीन करने का अभ्यास है। इसे साध लेने से साधक का मन - योगाभ्यास से विचलित नहीं होता। 1 जैन आगमों में प्रत्याहार के स्थान पर प्रतिसंलीनता शब्द का प्रयोग हुआ है वहाँ भी प्रतिसंलीनता का यही तात्पर्य है, उससे उनकी दिशा परिवर्तित हो जाती है। जैन आगमों में निर्जरा या तपश्चरण के बारह भेदों में इसे छठे भेद के रूप में स्वीकार किया गया है। 7 प्रत्याहार तक के योगों का अभ्यास शरीर श्वासोच्छ्वास तथा इंद्रियों को नियंत्रित करने का, वशीकृत करने का मार्ग है । इतना हो जाने पर साधक आंतरिक सूक्ष्म - साधना के मार्ग पर समुद्यत होने की योग्यता प्राप्त करता है । धारणा, ध्यान और समाधि चित्त को किसी एक देश में या स्थान में केन्द्रित करना, स्थिर करना धारणा है । जिस ध्येय में चित्त को लगाया जाए, जब चित्त उसमें एकाग्र हो जाए, केवल ध्येय मात्र की ही प्रवृत्ति का प्रवाह वस्तु चलता रहे, उसके बीच में कोई दूसरी वृत्ति न उठे, ध्यान कहा जाता है। ध्यान करते-करते जब चित्त ध्येय के आकार में परिणत हो जाए, चित्त के अपने स्वरूप का १. योगसूत्र, विभूतिपाद, सूत्र - १. २. योगसूत्र, विभूतिपाद, सूत्र - २. 97
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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