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वीतराग स्वरूप मैं राग-द्वेष कर ही नहीं सकता जान स्वभाव मेरा है स्वयं में ही परिपूर्ण ज्ञानानंद इन्द्रियों, और मन- -बुद्धि का सहारा ले नहीं सकता मेरा जिन स्वरूप खुद ही खुद से है जान सकता.
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जिनेन्द्र देव दुनिया का भला-बुरा न कर जान ही सकते मैं भी बाहर की, शरीर की कोई भी क्रिया कर नहीं सकता मेरे वीतराग भाव को ही तो "मैं" प्रगट है कर सकता यही "मैं"
' उत्कृष्ट से उत्कृष्ट क्रिया, पूर्णतया, हूं कर सकता
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