________________
हार फिर जीत
पहले हार फिर जीत है, यही दुनिया की रीत है पहले निगोद फिर मोक्ष,यही दुनिया की रीत है राग का अंश भी रह जाये, जल खाक ही होता है जीव इसी तरह पूर्ण वीतराग दशा को पाता है स्वयं को जीता ही मान लिया, फिर हार में भी जीत है.
मैं आत्मा तो सदैव मुक्त, हार जीत का खेल नहीं बाहर से हारा दिखू, फिर भी अंतर में जीता ही हूं राग को जब जान लिया है पराया, अब तो मेरा अंतर का वीतराग ही, बाहरी राग को जला देगा स्वयं को जीता ही मान लिया फिर हार में भी जीत है.
बाहर के हारे हुए रूप में न फंस कर,अंतर में ही जब झांक लिया, तो अंतर का जीता ही जीत है वह एक ही अभेद, अखंड, सदा ही परमात्मा है यही मैं, यही मेरा, इसी एक का ही आसरा है स्वयं को जीता ही मान लिया फिर हार में भी जीत है.
213