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मानव
आंख से ही देखता हूं और बिन आंख अंधा हूं यह माननेवाला ही सदा अंधा है कानों से ही सुनता हूं और बिन कान बहरा हूं यह माननेवाला ही सदा बहरा है मैं एक ज्ञायक ज्ञानस्वरुप इन इन्द्रियों से नहीं इन्द्रियों के आधार से भी नहीं इन्द्रियों का पराश्रित भी तो नहीं पूर्ण स्वाधीन स्वाश्रितही हूं मानव, मानव को ही जान पहचान तभी तू तेरे सत्स्वरूप को भी जान सकेगा मानव तू तो अनंत आनंद, सुख, शांतिमय पूर्ण तत्व ही है, चैतन्य ही है, ज्ञान ही है प्रभु प्रतिमा की आंख आधी खुली आधी बंद ही है न सदा देखता, ज्ञानमय प्रभु ही परमात्मा है। सदा देखता, सदा शांति सुखमय रहता ही चैतन्य स्वरूप ही ज्ञान स्वरूप है.
Note: This poem was inspired by the work of Daniel Kish who has overcome his blindness. He has said my biggest obstacle was that people just refuse to believe I too can see.
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