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ज्ञान तो ज्ञान ही है
शरीर स्वभाव से निरोगी ही होता है रोग संयोग से होता है और शरीर ही रोगी कहलाता है शरीर का एक एक अंग स्वयं का काम परिपूर्ण करता है अंगों की बुरी आदतों से भरा उपयोग ही असफल बनता है सोना भी स्वयं पूर्ण स्वच्छ होता है, मिलावट से भी तो सोने का मोल कम होता नहीं, भले चमक बदल भी जाये.
इसी प्रकार ज्ञान तो ज्ञान ही है, शुद्ध बुद्ध जानने वाला जानने वाला तो जानता ही है, जानने में ही पर ज्ञेय भी
और पर ज्ञेयों के निमित्तों से होते भाव भी झलकते हैं ये पराश्रित भाव, ज्ञान स्वयं नहीं, ज्ञान का शुद्ध उपयोग भी नहीं. ज्ञान तो जो जैसा है वैसा ही हर समय जान रहा है मैं ज्ञान स्वरूप तो जैसा है वैसा ही हर समय जान रहा हूं.
मेरे ज्ञान का ही सामर्थ्य है, कि हर समय अनादि अनंत जान ही रहा हूं मैं तो मेरे को ही जान रहा हूँ, मेरी ही शुद्धता ऐसी, कि हर समय मेरी ही तत् समय की योग्यता झलक जाती है हर समय की योग्यता मैं नहीं, इसकी मिलावट भी मुझ में नहीं मैं शाश्वत, मेरा मोल भी कभी भी मिलावट से कम होता नहीं मैं शाश्वत ज्ञान, इस झलकते ज्ञान में आता भी नहीं, जानता ही हूं.
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