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चारित्र
चारित्र कीमहीमा तोमानव ने सदा ही की है. रामचरितमानस क्या राम और सीता के ही चारित्र की बात नहीं? सदाचार से जीना, सत्य ही सुनना,बोलना,और कहना क्या हमारा धर्म नहीं?
संयम से जीना, संयम से खाना, संयम से जो धन दौलत पाई उसे खरचना. संयमी जीव हमारे समाज में पूजनीय. बच्चों को भी हम संयम बचपन से ही सिखाते हैं. क्या यही हमारा चारित्र नहीं?
मैं आत्मा और मेरे तीन रत्न हैं, रत्नत्रय, सम्यक्श्रद्धा, सम्यक्ज्ञान, एवं सम्यक्चारित्र सम्यक् मतलब पूरा सच्चा. जैसा है वैसा ही श्रद्धा में लाना, ज्ञान में जानना एवं चारित्र में अपनाना.
यही रत्नत्रय तो हमारा धर्म है, जीव जब स्वयं को, ज्ञानस्वरूप को, ज्ञायक को, जानता है तो कहते हैं कि दुनिया के ज्ञान से होते,राग से भिन्न, स्वयं के ज्ञान को, स्वसंवेदनसे जानता है.
इस राग एवं स्वभाव बीच ही तो है सुक्ष्म संधि, सम्यक्ज्ञान ही इस संधि को छेद देता है. मैं राग का अनुभव नहीं, स्वभाव का अनुभव करता हूं. राग, चारित्रगुण का दोष, एक समय के लिये हुआ दूर.
सम्यक्श्रद्धा, इस जगत के वस्तुस्वरूप की सच्ची श्रद्धा से मेरा ज्ञान, ज्ञायक, निर्मलता से परिणमा इस राग, चारित्रगुण के दोष को छोड़ स्वभाव का अनुभव! एक समय के लिये प्रभूतेरे दर्शन हो गये.
यही तो चारित्र है, सम्यक्श्रद्धा में टिक जाना ही चारित्र है, तब बाहर से शरीर की अवस्था बाहर का चारित्र कहलाता है. स्वभाव, ज्ञायक भाव, आत्मभाव का अनुभव ही चारित्र है.ज्ञानानंद भी यही है.