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________________ ८६ योगकल्पलता विवेक से विराग प्राप्त होने पर निस्पृह योगि को मोक्ष की भी चिन्ता नहीं रहती है।।५०।। स्वाच्छन्द्यं साधकानां तु यत्तन्त्रे प्रतिपादितम्। जानन्ति विरलाः केचिल्लोकोत्तरा हि योगिनः।।५१।। शास्त्रों में स्वच्छन्दता साधकों के लिए कही गई है। उसे कोई विरल और लोकोत्तर योगी ही जानते हैं।।५१।। सर्वसङ्कल्पहीनो वै स्वात्मैकरतितत्परः। समावेशात्समाधौ स्याद्योगीन्द्रो जिनसन्निभः।।५२।। जो साधक अन्य सभी प्रकार के धर्माचरण से हीन होते हुए भी अनन्यभाव से आत्मप्रेमी है वह समाधि में प्रवेश करने पर वे जिन के समान हो जाते हैं।।२।। मनःशान्त्या समाधिस्तु जायते तत्त्वनिश्चयात्। तस्मात्सर्वप्रयत्नस्तु कर्तव्यस्तत्त्वनिश्चयः।।५३।। विचारों का पूर्णरूप से उपशम होने से चित्त शान्त होता है। जिससे तत्त्व का निश्चय होता है। तत्त्व के निर्णय (आत्मज्ञान) से समाधि होती है। अतः सभी प्रयत्नों से आत्मज्ञान करें।।५३।। गुरोर्भद्रङ्कराख्यस्य पन्न्यासपदधारिणः। प्रसादाद्रचितं शीघ्रमात्मतत्त्वसमीक्षणम्।।५४।। मेरे गुरु पंन्यास श्री भद्रकरविजयजी म.सा. की कृपा से (आशीर्वाद से) आत्मतत्त्वसमीक्षणम् नामक इस ग्रन्थ की रचना शीघ्र ही संभव हो पायी।।५४।। ।।इति आत्मतत्त्वसमीक्षणम्।।
SR No.009267
Book TitleYogkalpalata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGirish Parmanand Kapadia
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages145
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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