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प्रस्तावना
आशुकवि श्री गिरीशभाई कापडिया ‘कल्पेश' द्वारा रचित आत्मतत्त्वसमीक्षणम् में प्रवेश करने से पहले वाचकों के लिये जैन धर्म के कुछ मुख्य सिद्धांतों से अवगत होना आवश्यक है। तब ही इस कृति का मर्म समझ में आयेगा।
___ जैन धर्म का सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है कि आत्मा की सत्ता स्वतंत्र है। वह शरीर से भिन्न है। अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तचारित्र और अनन्तसुख यह चार आत्मा के मूलभूत गुण है। प्रत्येक शरीरधारी प्राणी उपर्युक्त चार मूलभूत गुणों से युक्त स्वतंत्र आत्मा है।
वर्तमान में आत्मा अनादिकालीन कर्मों के आवरणों से आवृत है। कर्म के कारण ही वह विभिन्न देह धारण करता है। मूलतः आत्मा नित्य है फिर भी शरीर के संबंध के कारण उसे जन्म-मरण अवस्था प्राप्त होती है। यह अवस्था देव, मनुष्य, मनुष्येतर प्राणि जगत् तथा-नरकगतिरूप होती है। इस तरह यह संसार अनादि काल से प्रवर्तमान है।
जिसे इस दुःखभरी अवस्था से मुक्ति अभीष्ट है, उसे अपने अनन्तकर्म के बन्धनों को तोडने का प्रयास करना चाहिए।
मुक्ति या मोक्ष का अर्थ है- कर्म से सर्वथा छुटकारा। कर्म से संपूर्ण रूप से मुक्त आत्मा का संसार में पुनरागमन कभी नहीं होता।
‘अनेकान्तवाद' जैनदर्शन का महत्त्वपूर्ण प्रदान है। जो पदार्थ के दो विरुद्ध धर्मों के साथ अस्तित्व का स्वीकार करता है। अनेकान्तवाद के अनुसार एक और अनेक ये विरुद्ध प्रतीत होनेवाले धर्म वस्तुतः पदार्थ एक भाग ही है। इस कृति में आत्मा के एकत्व की विचारणा अनेकान्तवाद के संदर्भ में प्रस्तुत की गई है।
मुझे यह विश्वास है कि इस विकास प्रक्रिया का अभ्यास करने पर किसी भी व्यक्ति को आत्मा का सही स्वभाव का स्पष्ट होगा।
जी. जी. भागवत